क्या भरोसा ज़िदगी का
वक़्त की नाराज़गी का।
इश्क़ के बादल भटकते
दे पता अपनी गली का।
हुस्न की लहरों से बचना
ये समंदर है बदी का।
फूलों को समझाना आसां
ना-समझ है दिल कली का।
आंधी सी वो आई घर में
थम चुका है कांटा घड़ी का।
दौड़ने से क्या मिलेगा
ये सफ़र है तश्नगी का।
बन्धनों से मुक्त है जो
मैं किनारा उस नदी का।
चांद के सर पे है बैठी
क्या मज़ा है चांदनी का।
ग़म खड़ा है मेरे दर पे
क्या ठिकाना अब ख़ुशी का।
बेच खाया दानी का घर
ये सिला है दोस्ती का।
क्या भरोसा ज़िदगी का
ReplyDeleteवक़्त की नाराज़गी का।
इश्क़ के बादल भटकते
दे पता अपनी गली का।
वाह!! बहुत खूब! अच्छी लगी गज़ल। हर शेर उमदा। बधाई।
ग़म खड़ा है मेरे दर पे
ReplyDeleteक्या ठिकाना अब ख़ुशी का।
बहुत खूब ...अच्छी गज़ल
क्या भरोसा ज़िदगी का
ReplyDeleteवक़्त की नाराज़गी का।
इश्क़ के बादल भटकते
दे पता अपनी गली का।
बेहतरीन पंक्तियां...बहुत सुंदर।
पूरी ग़ज़ल पसंद आई
बधाई, डॉ. साहब।
निर्मला जी , संगीता जी व महेन्द्र भाई को तहे दिल शुक्रिया।
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