दोस्तों ने कर दिया बरबाद घर
दुश्मनों से अब नहीं लगता है डर।
कब मिलेगी मन्ज़िलों की दीद, कब
ख़त्म होगा तेरे वादों का सफ़र।
जिसके कारण मुझको दरवेशी मिली
है इनायत उसकी सारे शहर पर।
आशिक़ी क्या होती है क्या जानो तुम
क़ब्र में भी रहता है दिल मुन्तज़र।
छोड़ दूं मयख़ाने जाना गर तू, रख
दे अधर पे मेरे, अपने दो अधर।
कश्ती-ए- दिल है समन्दर का ग़ुलाम
लग नहीं जाये किनारों की नज़र।
हौसलों से मैं झुकाऊंगा फ़लक
क्या हुआ कट भी गये गर बालो-पर।
छोड़ कर मुझको गई है जब से तू
है नहीं इस दिल को अपनी भी ख़बर।
है चरागों सा मुकद्दर मेरा भी
दानी भी जलता है तन्हा रात भर।
मुन्तज़र -- इन्तज़ार में। फ़लक - आसमां
बालो-पर- बाल और पंख
'haushlon se mai jhkaunga falak
ReplyDeletekya hua kat bhi gaye gar balo-par'
umda sher..
sundar gazal..
दोस्तों ने कर दिया बरबाद घर
ReplyDeleteदुश्मनों से अब नहीं लगता है डर।
बेहतरीन मतअला..बेहतरीन ग़ज़ल...हर शे‘र में आपका निराला अंदाज झलक रहा है।
आशिक़ी क्या होती है क्या जानो तुम
ReplyDeleteक़ब्र में भी रहता है दिल मुन्तज़र।
क्या बात है ....!
सुरेन्द्र जी , महेन्द्र भाई व हरकीरत जी का बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteदोस्तों ने कर दिया बरबाद घर
ReplyDeleteदुश्मनों से अब नहीं लगता है डर।
इन बातों का मर्म भेदता है!
सुन्दर गज़ल!