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Saturday, 25 December 2010

दिल का गागर

भुरभुरा है दिल का गागर,
क्यूं रखेगा कोई सर पर।

हिज्र का दीया जलाऊं,
वस्ल के तूफ़ां से लड़ कर।

उनकी आंखों के साग़र,
ग़म बढाते हैं छलक कर।

जब से तुमको देखा है सनम,
थम गया है दिल का लश्कर।

भंवरों का घर मत उजाड़ो,
फूल, बन जायेंगे पत्थर।

झूठ का आकाश बेशक,
जल्द ढह जाता है ज़मीं पर।

ग़म, किनारों का मुहाफ़िज़
सुख का सागर दिल के भीतर।

न्याय क़ातिल की गिरह में,
फ़ांसी पे मक़्तूल का सर।

आशिक़ी मांगे फ़कीरी,
दानी भी भटकेगा दर-दर।

9 comments:

  1. ग़म, किनारों का मुहाफ़िज़
    सुख का सागर दिल के भीतर।
    सुन्दर!

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  2. 'bhanvaron ka ghar mat ujado
    phool ban jayenge patthar'
    umda sher!

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  3. भंवरों का घर मत उजाड़ो,
    फूल, बन जायेंगे पत्थर।

    बेहतरीन शे‘र।
    पूरी ग़ज़ल शानदार है।

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  4. अनुपमा जी , सुरेन्द्र जी व महेन्र्द वर्मा जी का आभार व आप सबको नववर्ष की शुभकामनायें।

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  5. नव वर्ष 2011
    आपके एवं आपके परिवार के लिए
    सुखकर, समृद्धिशाली एवं
    मंगलकारी हो...
    ।।शुभकामनाएं।।

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  6. बहुत खूब सर!

    सादर

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  7. कल 06/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  8. ग़ज़ल शिल्प आप बेहतर जानते हैं संजय जी, मुझे पढ़ कर आनंद आया

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  9. भंवरों का घर मत उजाड़ो,
    फूल, बन जायेंगे पत्थर।

    आदरणीय संजय दानी सर खूबसूरत गज़ल पढकर आनंद आ गया...
    सादर बधाई...

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