गम का दरिया छलकने को तैयार है,
साहिले हुस्न का ज़ुल्म स्वीकार है।
तेरे वादों का कोई भरोसा नहीं,
झूठ की गलियों में तेरा घरबार है।
चल पड़ी है कश्ती तूफ़ानों के बांहों में,
ज़ुल्मी महबूब, सदियों से उस पार है।
शहरों का रंग चढने लगा गांव में,
हर गली में सियासत का व्यौपार है।
पैसों का हुक्म चलता है अब सांसों पर,
आदमी का कहां कोई किरदार है।
जब से ली है ज़मानत चरागों की,तब
से अदालत हवाओं की मुरदार है।
बस मिटा दो लकीरे वतन को सनम,
इश्क़ को सरहदों से कहां प्यार है।
मन के आंगन में गुल ना खिले वस्ल के,
हुस्न के जूड़े में हिज्र का ख़ार है।
ज़ुल्फ़ों को यूं न हमदम बिखेरा करो,
दानी के गांव का सूर्य बीमार है।
बस मिटा दो लकीरे वतन को सनम,
ReplyDeleteइश्क़ को सरहदों से कहां प्यार है।
बहुत खूबसूरत गज़ल..हरेक शेर लाज़वाब..
संगीता स्वरूप जी और कैलाश शर्मा जी का अभार।
ReplyDeleteखूबसूरत गजल ,बधाई
ReplyDeleteमन के आंगन में गुल ना खिले वस्ल के,
ReplyDeleteहुस्न के जूड़े में हिज्र का ख़ार है...
वाह !...बेमिसाल हैं सभी शेर...एक से बढ़कर एक ।
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पैसों का हुक्म चलता है अब सांसों पर,
ReplyDeleteआदमी का कहां कोई किरदार है।
आजकल के हालात की तस्वीर है ये शेर।
सभी शेर साजवाब।
many many thanks to Ajay ji, Diwyaa jI and Mahendra Verma ji.
ReplyDeleteजब से ली है जमानत चरागों की,तब
ReplyDeleteसे अदालत हवाओं की मुरदार है
.....................जानदार शेर
......................उम्दा ग़ज़ल
सुरेन्द्र जी को शुक्रिया पेश करता हूं।
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