तेरी जुदाई का ऐसा मातम रहा,
ता-ज़िन्दगी दूर मुझसे हर गम रहा।
मंज़िल मेरी तेरी ज़ुल्फ़ों के गांव में,
दिल के सफ़र में बहुत पेचो-ख़म रहा।( पेचो_ख़म- उलझन)
इक धूप का टुकड़ा था मेरी जेब में,
पर वो भी नाराज़ मुझसे हरदम रहा।
सांसे गुज़र तो रही हैं बिन तेरे भी,
पर जीने का हौसला हमदम कम रहा।
ईमां की खेती करें तो कैसे करें,
बाज़ारे दुनिया में सच भी बरहम रहा। (बरहम- अप्रसन्न)
दिल की गली को दुआ तेरे अब्र की,
ता उम्र ज़ुल्मो-सितम का मौसम रहा।
नेक़ी की पगड़ी गो ढीली ढीली रही,
मीनार छूता बदी का परचम रहा।( परचम- झंडा)
भौतिकता के अर्श में हम ऐसे फंसे, ( अर्श- आकाश)
सदियां गई आदमी पर ,आदम रहा।
बुलबुल-ए-दिल, हुस्न के बगिया से कहे
सैयाद से रिश्ता दानी कायम रहा
बहुत खूबसूरत गज़ल
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 07- 06 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच
तेरी जुदाई का ऐसा मातम रहा,
ReplyDeleteता-ज़िन्दगी दूर मुझसे हर गम रहा।
इस एक ग़म के आगे किसी दुःख का एहसास ना रहा !
क्या बात है, बहुत खूब!!!
ReplyDeleteतेरी जुदाई का ऐसा मातम रहा,
ReplyDeleteता-ज़िन्दगी दूर मुझसे हर गम रहा।
क्या खूब
सांसे गुज़र तो रही हैं बिन तेरे भी,
ReplyDeleteपर जीने का हौसला हमदम कम रहा...
बहुत खूब संजय जी ... कमाल के शेर निकाले हैं ... ये शेर तो बहुत ही ख़ास लगा ... बार बार padhne को दिल कर रहा है ....
भौतिकता के अर्श में हम ऐसे फंसे
ReplyDeleteसदियाँ गई आदमी पर,आदम रहा
.......................जानदार शेर ....उम्दा ग़ज़ल
भौतिकता के अर्श में हम ऐसे फंसे,
ReplyDeleteसदियां गई आदमी पर ,आदम रहा।
क्या बात कही....
एक से बढ़कर एक नायाब शेर काधें हैं आपने...
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल...बधाई...
संगीता स्वरूप जी , वाणी जी,समीर लाल जी, सुरेन्द्र जी , नासवाजी,चन्द्र भूषण जी , रन्जना जी आप सबका तहे दिल शुक्रिया।
ReplyDeleteईमां की खेती करें तो कैसे करें,
ReplyDeleteबाज़ारे दुनिया में सच भी बरहम रहा।
बहुत ख़ूबसूरत गज़ल...हरेक शेर बहुत उम्दा..
इक धूप का टुकड़ा था मेरी जेब में,
ReplyDeleteपर वो भी नाराज़ मुझसे हरदम रहा।
संजय भाई , क्या उम्दा-उम्दा शेर कहे हैं.बहुत खूब....
कैलाश जी और अरूण भाई का आभार।
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