दे्श के कण कण से ओ जन जन से हमको प्यार है,
अब यही तो मुल्क के जनतंत्र का आधार है।
फ़र्ज का चौपाल अब भी लगता मेरे गांव में,
ज़ुल्म का हर सिम्त तेरे शहर में दरबार है।
अपनी ज़ुल्फ़ों की घटाओं को रखो तरतीब से,
सूर्य की बुनियाद वरना ढहने को तैयार है।
जब जवानी की अदालत है हवस के बाड़े में,
तो वक़ालत सब्र की मेरे लिये दुश्वार है।
बेवफ़ाई चांदनी का तौर है हर दौर में,
चांद की तस्वीर में अब भी वफ़ा का हार है।
जानिबे-तूफ़ां मेरी कश्ती चली है बेधड़क,
बेरहम साहिल से मेरी सदियों से टकरार है।
क्यूं मुहब्बत में सियासत करती हो जाने-जिगर
ये रियासत तो ख़ुदाई इल्म का संसार है।
जब से तुमको देखा है मेरे होश की छत ढह गई,
बेबसी के दायरे में नींव की दस्तार है। (दस्तार -टोपी)
दानी मैखाने में मय पीने नहीं आता था सुबू,( सुबू-- शराब खाने का मुखिया)
दीदे-साक़ी बिन नशे की हर ज़मीं मुरदार है।
उम्दा ग़ज़ल ...
ReplyDeleteहर शेर बेहतरीन ..
संजय दानी जी ,
आपकी ग़ज़लें पढना बहुत अच्छा लगता है |
अपनी ज़ुल्फ़ों की घटाओं को रखो तरतीब से,
ReplyDeleteसूर्य की बुनियाद वरना ढहने को तैयार है।
सभी शे‘र बेमिसाल, लेकिन इस शे‘र की बात ही कुछ और है।
बहुत अच्छी लगी यह ग़ज़ल।
सुरेन्द्र जी और महेन्द्र भाई जी का बहुत बहुत आभार।
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