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Saturday, 15 January 2011

ऐतबार

तुझपे मैं ऐतबार कर रहा हूं,
मुश्किलों से करार कर रहा हूं।

प्यार कर या सितम ढा ग़लती ये
बा-अदब बार बार कर रहा हूं।

जानता हूं तू आयेगी नहीं पर,
सदियों से इन्तज़ार कर रहा हूं।

जब से कुर्बानी का दिखा है चांद,
अपनी सांसों पे वार कर रहा हूं।

हुस्न की ख़ुशियों के लिये, मैं इश्क़
गमों का इख़्तियार कर रहा हूं।

तू ख़िज़ां की मुरीद इसलिये अब,
मैं भी क़त्ले-बहार कर रहा हूं।

दिल से लहरों का डर मिटाने ही,
आज मैं दरिया पार कर रहा हूं।

मेरा जलता रहे चराग़े ग़म,
आंधियों से गुहार कर रहा हूं।

गांव के प्यार में न लगता था ज़र,
शहरे-ग़म में उधार कर रहा हूं।

आशिक़ी के बियाबां में दानी,
ख़ुद ही अपना शिकार कर रहा हूं।
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4 comments:

  1. 'आशिकी के बियाबां में दानी

    खुद ही अपना शिकार कर रहा हूँ '

    बहुत सुन्दर शेर ..

    उम्दा ग़ज़ल ..

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  2. पूरी ग़ज़ल बहुत अच्छी है

    ये दो शे‘र ज्यादा प्रभावशाली लगे-

    दिल से लहरों का डर मिटाने ही,
    आज मैं दरिया पार कर रहा हूं।

    मेरा जलता रहे चराग़े ग़म,
    आंधियों से गुहार कर रहा हूं।

    क्या जबर्दस्त बात कही है आपने, वाह, डॉ. साहब।

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  3. सुरेन्द्र जी , हरमन जी और महेन्द्र वर्मा जी का आभार।

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