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Thursday 24 February 2011

नये साल में

नये साल में नया गुल खिले नई हो महक नया रंग हो,
फ़िज़ा-ए-वतन में ख़ुलूस की सदा हो अदब की तरंग हो।

कहां तक अकेले चलोगे इश्क़ के सर्द, दश्ते-बियाबां में,
मेरा साया, गर न अजीज़ हो तो मेरी दुआयें तो संग हो।

ये लड़ाई सरहदों की,तबाह करेगी हमको भी तुमको भी,
तुम्हें शौक़े- जंग हो तो ग़ुनाहों के सरपरस्तों से जंग हो।

मैं चरागे आशिक़ी को बुलंद रखूंगा मरते तलक सनम,
भले आंधियां तेरे ज़ुल्मी हुस्न की,बे-शहूर मतंग हो।

ये जवानी की हवा चार दिन ही रहेगी, आसमां पे न उड़
सुकूं से बुढापा बिताने , हाथों पे सब्र की ही पतंग हो।

वफ़ा के मकान की कुर्सियां पे लगी हों कीलें भरोसों की,
दिलों के मुहल्ले में ग़ैरों के लिये भी मदद की पलंग हो।

कहां राज पाठ किसी के साथ लहद में जाता है दोस्तों,
दो दिनों की ज़िन्दगी में हवस के मज़ार जल्द ही भंग हो।

मुझे अपने कारवां के सफ़र से जुदा न करना ऐ महजबीं,
तेरे पैरों की जहां भी हो थाप , वहां मेरा ही म्रिदंग हो।

तेरे आसमां पे मेरा ही हुक्म चलेगा दानी , ये याद रख,
मेरी नेक़ी जीतेगी ही तेरी बदी चाहे कितनी दबंग हो।

3 comments:

  1. मुझे अपने कारवां के सफ़र से जुदा न करना ऐ महजबीं,
    तेरे पैरों की जहां भी हो थाप , वहां मेरा ही मृदंग हो।

    वाह, इस शेर ने मन मोह लिया।
    बहुत अच्छी ग़ज़ल।

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  2. प्रिय भाई संजय दानी जी ,

    सप्रेम अभिवादन

    आप हर तरह की सुन्दर ग़ज़लें लिखने में समर्थ हैं | पढने में बड़ा आनंद आता है |

    'वफ़ा के मकान की कुर्सियां पे लगी हों कीलें भरोसों की

    दिलों के मोहल्ले में गैरों के लिए भी मदद की पलंग हो '

    बहुत सुन्दर भाव ,,,,पूरी ग़ज़ल अपनी बात अपने ढंग से कहने में सक्षम

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  3. आप की ग़ज़लें पढने में बड़ा आनंद आता है |
    आप को महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ|

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