ग़म की कलम से दर्द की तहरीर लिखता हूं,
मैं जेबे-दिल में मौत की तस्वीर रखता हूं।
ख़त, जुगनुओं के रोज़ मेरे पास आते हैं,
मैं इश्क़ को अंधेरों में तन्वीर देता हूं। ( तन्वीर - रौशनी)
कासे में इस फ़क़ीर के थोड़ा ही दाना दो, ( कासा - कटोरा)
मैं भूख की फ़िज़ाओं की तकलीफ़ सहता हूं।
मक़्तूल का शिकार, दरे-हुस्न में हुआ, ( मक़्तूल - जिसका क़त्ल हुआ)
अब क़ातिलों को दुआ के पीर देता हूं।
तैयार हूं मैं जलने को, महफ़िल-ए-शमअ में,
कद, पुरखों का बढाने बग़लगीर रहता हूं। (बग़लगीर- बाजू )
इस दिल के आईने को नशा तेरी ज़ुल्फ़ों का,
मैं बादलों से सब्र की जाग़ीर लेता हूं।
फुटपाथ के भरोसे मुकद्दर है चांद का,
मैं चांदनी के ज़ुल्मों की तस्दीक़ करता हूं। ( तस्दीक-पुष्टि)
गो इश्क़ की नदी में उतर तो गया हूं पर,
मंझधारे-हुस्न को कहां मैं जीत सकता हूं।
दिल का सिपाही, ज़ुल्म सियासत का क्यूं सहे,
मैं सरहदों पे दोस्ती के गीत सुनता हूं।
तुम ही मेरा जनाज़ा निकालोगी दानी जल्द,
तेरी वफ़ा से इतनी तो उम्मीद करता हूं।
'दिल का सिपाही ,जुल्म सियासत का क्यूँ सहे
ReplyDeleteमैं सरहदों पे दोस्ती के गीत गाता हूँ '
जज्बे को सलाम......उम्दा शेर
इस दिल के आईने को नशा तेरी ज़ुल्फ़ों का,
ReplyDeleteमैं बादलों से सब्र की जाग़ीर लेता हूं।
शेर अच्छा लगा, बधाई
ख़त जुगनुओं के रोज़ मेरे पास आते हैं,
ReplyDeleteमैं इश्क़ को अंधेरों में तन्वीर देता हूं।
बहुत ख़ूब, डॉ. साहब।
शानदार शे‘र, बढ़िया ग़ज़ल।
सुरेन्द्र जी , सुनील कुमार जी व महेन्द्र वर्मा जी का बहुत बहुत आभार।
ReplyDelete