राम की नगरी में रावण की सभायें,
द्वारिका पर कंस की कसती भुजायें।
उस तरक्की के सफ़र में चल पड़े हम,
लक्ष्मणों का पाप ढोती उर्मिलायें।
रिश्तों की बुनियाद ढहती जा रही है,
विभिषणों की दास्तां कितनी सुनायें।
आंसुओं से भीगे रामायण के पन्ने,
तुलसी भी लिक्खे सियासत की कथायें।
आज भी मीरायें विष पी रही हैं,
आज के क्रिष्णों की ठंडी हैं शिरायें।
मस्त हैं सावित्री ओ यमराज के दिल,
सत्यवां की आंखों में उमड़ी घटायें।
गांधी के बंदर कहां अब बोलते हैं,
हर तरफ़ मनमोहनी ज़ुल्मी सदायें।
नेक़ी ईमां अब सरे बाज़ार बिकते,
पाप के असबाब से बढती वफ़ायें।
मुल्क की इज़्ज़त की किसको पड़ी है,
ग़मज़दा सारे शहीदों की चितायें।
पांडवों की हार में हंसते हैं दानी
कौरवों की जीत में ख़ुशियां मनायें।
गांधी के बंदर कहां अब बोलते हैं,
ReplyDeleteहर तरफ़ मनमोहनी ज़ुल्मी सदायें।
इस ग़ज़ल में, ख़ास तौर पर इस शेर में तो आज के दौर की वास्तविक व्यथा-कथा निहित है। ‘मनमोहनी‘ शब्द ने सब कुछ बयां कर दिया।
'मुल्क की इज्ज़त की किसको पड़ी है
ReplyDeleteग़मज़दा सारे शहीदों की चिताएँ |
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सत्य वचन .....प्रभावशाली प्रस्तुति
Many many Thanks to varma ji and Surendra ji.
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