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Saturday 21 August 2010

यादों की नदी

तेरी यादों की नदी फिर बह रही है,
फिर ज़मीने-दिल परेशां हो गई है।

ख़्वाबों के बिस्तर में सोता हूं अब मैं,
बे-मुरव्वत नींद मयके जा चुकी है।

दिल ये सावन की घटाओं पे फ़िदा है,
तेरी ज़ुल्फ़ें ही फ़िज़ाओं की ख़ुदी है।

मैं कहानीकार ,तुम मेरे अदब हो,
मेरी हर तहरीर तुमसे जा मिली है।

नाम तेरा ही बसा है मेरे लब पे,
दिल्लगी है दिल की, या दिल की लगी है।

इक छलावा हो गई लैला की कसमें,
मजनूं के किरदार पर दुनिया टिकी है।

महलों की दीवारों पे शत शत सुराख़ें,
झोपड़ी विशवास के ज़र पर खड़ी है।

जान देकर हमने सरहद को बचाया,
पर मुहल्ले की फ़ज़ायें मज़हबी हैं।

हुस्न के सागर में दानी डूबना है,
कश्ती-ए-दिल की हवस से दोस्ती है।

2 comments:

  1. रक्षाबंधन पर हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
    बहुत सुन्दर कविता लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!

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  2. आदरणीया बबली जी , रक्छा बंधन की बधाई व ग़ज़ल की तारीफ़ के लिये तहेदिल शुक्रिया , भविश्य में भी आपकी सकरात्मक व नकरात्मक दोनों प्रकार की टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा। धन्यवाद।

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