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Saturday, 7 August 2010

प्यासा सहरा

देख मुझको, उसके चेहरे पे हंसी है,
प्यासा सहरा मैं,उफनती वो नदी है।

राहे-सब्रे- इश्क़ का इक मुसाफ़िर मैं,
वो हवस की महफ़िलों में जा छिपी है।

सौदा उसका बादलों से पट चुका है,
वो अंधेरों में शराफ़त ढूंढती है।

दिल पहाड़ो को मैंने कुर्बां किया है,
सोच में उसकी उंचाई की कमी है।

दिलेआशिक़ तो झिझकता इक समंदर,
हुस्न की कश्ती अदाओं से भरी है।

सोया हूं वादों के चादर को लपेटे,
खाट धोखेबाज़ी से हिलने लगी है।

महलों सा बेख़ौफ़ तेरा हुस्न हमदम,
इश्क़ की ज़द में झुकी सी झोपड़ी है।

दिल के दर को खटखटाता है तेरा ग़म,
दुश्मनी के दायरे में दोस्ती है।

होली का त्यौहार आने वाला है फिर,
उनकी आंखों की गली में दिल्लगी है।

दिल का मंदिर खोल कर रखती वो जब से,
दानी , कोठों की दुआयें थम गई हैं ।

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