तुम मेरे दर्द की दवा भी हो,
तुम मेरे ज़ख़्मों पर फ़िदा भी हो।
इश्क़ का रोग ठीक होता नहीं,
ये दिले नादां को पता भी हो।
शह्रों की बदज़नी भी हो हासिल,
गांवों की बेख़ुदी अता भी हो।
पेट परदेश में भरे तो ठीक,
मुल्क में कब्र पर खुदा भी हो।
महलों की खुश्बू से न हो परहेज़,
साथ फ़ुटपाथ की हवा भी हो।
उस समन्दर में डूबना चाहूं,
जो किनारों को चाहता भी हो।
मैं ग़रीबी की आन रख लूंगा,
पर अमीरों की बद्दुआ भी हो।
हारे उन लोगों से बनाऊं फ़ौज़,
जिनके सीनों में हौसला भी हो।
आशिक़ी का ग़ुनाह कर लूं साथ
दानी,मां बाप की दुआ भी हो।
बहुत खूबसूरत गज़ल
ReplyDeleteउस समन्दर में डूबना चाहूं,
ReplyDeleteजो किनारों को चाहता भी हो।
वाह!
उस समन्दर में डूबना चाहूं,
ReplyDeleteजो किनारों को चाहता भी हो।
क्या बात है...
उम्दा अशआर... खुबसूरत ग़ज़ल...
सादर बधाई...
उस समन्दर में डूबना चाहूं,
ReplyDeleteजो किनारों को चाहता भी हो।
क्या बात है सर!
बहुत ही खूबसूरत गजल है।
सादर
बढिया, बहुत सुंदर
ReplyDeletewaah bahut sundar...
ReplyDeletekhubsurat gazal.......aabhar
ReplyDeleteमैं ग़रीबी की आन रख लूंगा,
ReplyDeleteपर अमीरों की बद्दुआ भी हो।
....बहुत खूब! बहुत ख़ूबसूरत गज़ल...
acchi prastuti hai...
ReplyDeleteअनुपका पाठक और संगीता स्वरूप ( गीत) जी को बहुत बहुत धन्यवाद्।
ReplyDeleteहबीब साहब और माथुर साहब को आभार।
ReplyDeleteमहेन्द्र जी और कैलाश साहब को धन्यवाद्।
ReplyDeleteसुमन जी और अनु चौधरी जी का आभार।
ReplyDeleteरीना जी को धन्यवाद।
ReplyDeleteतुम मेरे दर्द की दवा भी हो,
ReplyDeleteतुम मेरे ज़ख़्मों पर फ़िदा भी हो।
खूबसूरत गज़ल.........!
पूनम जी क आभार्।
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