अब इश्क़ की गली में कोई पारसा नहीं,
सुख, त्याग का सफ़र कोई जानता नहीं।
ये दौर है हवस का सभी अपना सोचते,
रिश्तों की अहमियत से कोई वास्ता नहीं।
फुटपाथ पर गरीबी ठिठुरती सी बैठी है
ज़रदारे-शह्र अब किसी की सोचता नहीं।
जब फ़स्ले-उम्र सूख चुकी तब वो आई है,
मरते समय इलाज़ से कुछ फ़ायदा नहीं।
वे क़िस्से लैला मजनूं के सुन के करेंगे क्या,
आदेश हिज्र का कोई जब मानता नहीं।
मंझधार कश्तियों की मदद करना चाहे पर,
मगरूर साहिलों क कहीं कुछ पता नहीं।
ये दौर कारखानों का है खेती क्यूं करें,
मजबूरी की ये इन्तहा है इब्तिदा नहीं।
मंदिर की शिक्षा बदले की,मस्जिद में वार का
अब धर्म ओ ग़ुनाह में कुछ फ़ासला नहीं।
दिल के चराग़ों को जला, बैठा है दानी, वो
कैसे कहे हवा-ए-सनम में वफ़ा नहीं।
ये दौर है हवस का सभी अपना सोचते,
ReplyDeleteरिश्तों की अहमियत से कोई वास्ता नहीं।
....umda sher
....babhiya gazal.
जब फ़स्ले-उम्र सूख चुकी तब वो आई है,
ReplyDeleteमरते समय इलाज़ से कुछ फ़ायदा नहीं।
क़ाबिले-गौर शेर है, बहुत बढि़या।
इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए शुक्रिया।