हम दोनों गर साथ ज़माने को क्या,
दिन हो या रात, ज़माने को क्या।
आज चराग़ों और हवाओं की गर,
निकली है बारात, ज़माने को क्या।
बरसों हुस्न की मज़दूरी कर मैंने,
पाई है ख़ैरात ,ज़माने को क्या।
साहिल से डरने वाले गर लहरों,
को देते हैं मात, ज़माने को क्या।
कोई हुस्न कोई जाम की बाहों में,
जिसकी जो औक़ात ज़माने को क्या।
मैं ग़रीबी में भी ख़ुश रहता हूं,ये
है ख़ुदाई सौग़ात, ज़माने को क्या।
ग़ैरों से बांह छुड़ाये ठीक ,अगर
अपने करें आघात, ज़माने को क्या।
शाम ढले घर आ जाया करो बेटे,
ये समय है आपात ज़माने को क्या।
चांद वफ़ा का शौक़ रखे दानी पर,
चांदनी है बदज़ात ज़माने को क्या।
बहुत सुन्दर गज़ल ... सच ज़माने को क्या ..
ReplyDeleteMany many thanks to Sangita swaroop (Geet ji)
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