हमारा घर भी जला दो जो रौशनी कम हो,
हमारी झूठी मुहब्बत की बानगी कम हो।
अगर ग़रीबों की करनी है सेवा, ये तभी हो
सकेगा जब ख़ुदा-ईश्वर की बंदगी कम हो।
पड़ोसी ,दोस्ती के बीज़ गर न रोपे तो,
हमारे खेतों से क्यूं फ़स्ले दुश्मनी कम हो।
मिले न राधा तो सलमा से ना ग़ुरेज़ करो,
कि बेवफ़ाओं की गलियों की चाकरी कम हो।
कभी संवारा करो ज़ुल्फ़ों को सरेबाज़ार,
तराजुओं के इरादों की गड़बड़ी कम हो।
उतार दूं तेरी आंखों के दरिया में कश्ती,
तेरी ज़फ़ाओं की गर धरती दलदली कम हो।
उंचे दरख़्तों से क्या फ़ायदा मुसाफ़िर को,
किसी के काम न आये वो ज़िन्दगी कम हो।
भले दो घंटे ही हर कर्मचारी काम करे,
मगर ये काम हक़ीक़ी हो काग़जी कम हो।
मिलेगी मन्ज़िलें कुछ देर से सही दानी,
हमेशा जीत की दिल में दरीन्दगी कम हो।
Saturday, 3 December 2011
Monday, 7 November 2011
मेरे दर्द की दवा
तुम मेरे दर्द की दवा भी हो,
तुम मेरे ज़ख़्मों पर फ़िदा भी हो।
इश्क़ का रोग ठीक होता नहीं,
ये दिले नादां को पता भी हो।
शह्रों की बदज़नी भी हो हासिल,
गांवों की बेख़ुदी अता भी हो।
पेट परदेश में भरे तो ठीक,
मुल्क में कब्र पर खुदा भी हो।
महलों की खुश्बू से न हो परहेज़,
साथ फ़ुटपाथ की हवा भी हो।
उस समन्दर में डूबना चाहूं,
जो किनारों को चाहता भी हो।
मैं ग़रीबी की आन रख लूंगा,
पर अमीरों की बद्दुआ भी हो।
हारे उन लोगों से बनाऊं फ़ौज़,
जिनके सीनों में हौसला भी हो।
आशिक़ी का ग़ुनाह कर लूं साथ
दानी,मां बाप की दुआ भी हो।
तुम मेरे ज़ख़्मों पर फ़िदा भी हो।
इश्क़ का रोग ठीक होता नहीं,
ये दिले नादां को पता भी हो।
शह्रों की बदज़नी भी हो हासिल,
गांवों की बेख़ुदी अता भी हो।
पेट परदेश में भरे तो ठीक,
मुल्क में कब्र पर खुदा भी हो।
महलों की खुश्बू से न हो परहेज़,
साथ फ़ुटपाथ की हवा भी हो।
उस समन्दर में डूबना चाहूं,
जो किनारों को चाहता भी हो।
मैं ग़रीबी की आन रख लूंगा,
पर अमीरों की बद्दुआ भी हो।
हारे उन लोगों से बनाऊं फ़ौज़,
जिनके सीनों में हौसला भी हो।
आशिक़ी का ग़ुनाह कर लूं साथ
दानी,मां बाप की दुआ भी हो।
Wednesday, 26 October 2011
आशिक़ी का पैमाना
आशिक़ी का कोई तो पैमाना होगा,
बेबसी के गीत कब तक गाना होगा।
चादनी की बदज़नी स्वीकार कर ले,
चंद को घर छोड़ या फिर जाना होगा।
सर झुका कर हुस्न के नखरे जो झेले,
दौरे-फ़रदा में वही मरदाना होगा।
दिल समंदर के नशा से निकले बाहर,
हुस्न की कश्ती में गर मैखाना होगा।
मैं ग़ुनाहे -इश्क़ कर तो लूं सनम,गर
दा्यरे- तफ़्तीश तेरा थाना होगा।
आये मुल्के हुस्न में आफ़त का तूफ़ां,
गर सिपाही इश्क़ का बेगाना होगा।
तेरी आंखों में शरारे जब दिखेंगी,
मरने को तैयार ये परवाना होगा।
फ़ंस चुका है जो हवस के जाल में ,वो
सब्र की शमशीर से अन्जाना होगा।
गर मदद की आग दानी लेनी है तो
तो गुज़रिश का धुआं फ़ैलाना होगा।
बेबसी के गीत कब तक गाना होगा।
चादनी की बदज़नी स्वीकार कर ले,
चंद को घर छोड़ या फिर जाना होगा।
सर झुका कर हुस्न के नखरे जो झेले,
दौरे-फ़रदा में वही मरदाना होगा।
दिल समंदर के नशा से निकले बाहर,
हुस्न की कश्ती में गर मैखाना होगा।
मैं ग़ुनाहे -इश्क़ कर तो लूं सनम,गर
दा्यरे- तफ़्तीश तेरा थाना होगा।
आये मुल्के हुस्न में आफ़त का तूफ़ां,
गर सिपाही इश्क़ का बेगाना होगा।
तेरी आंखों में शरारे जब दिखेंगी,
मरने को तैयार ये परवाना होगा।
फ़ंस चुका है जो हवस के जाल में ,वो
सब्र की शमशीर से अन्जाना होगा।
गर मदद की आग दानी लेनी है तो
तो गुज़रिश का धुआं फ़ैलाना होगा।
Saturday, 8 October 2011
अब इश्क़ में पारसाई
अब इश्क़ की गली में कोई पारसा नहीं,
सुख, त्याग का सफ़र कोई जानता नहीं।
ये दौर है हवस का सभी अपना सोचते,
रिश्तों की अहमियत से कोई वास्ता नहीं।
फुटपाथ पर गरीबी ठिठुरती सी बैठी है
ज़रदारे-शह्र अब किसी की सोचता नहीं।
जब फ़स्ले-उम्र सूख चुकी तब वो आई है,
मरते समय इलाज़ से कुछ फ़ायदा नहीं।
वे क़िस्से लैला मजनूं के सुन के करेंगे क्या,
आदेश हिज्र का कोई जब मानता नहीं।
मंझधार कश्तियों की मदद करना चाहे पर,
मगरूर साहिलों क कहीं कुछ पता नहीं।
ये दौर कारखानों का है खेती क्यूं करें,
मजबूरी की ये इन्तहा है इब्तिदा नहीं।
मंदिर की शिक्षा बदले की,मस्जिद में वार का
अब धर्म ओ ग़ुनाह में कुछ फ़ासला नहीं।
दिल के चराग़ों को जला, बैठा है दानी, वो
कैसे कहे हवा-ए-सनम में वफ़ा नहीं।
सुख, त्याग का सफ़र कोई जानता नहीं।
ये दौर है हवस का सभी अपना सोचते,
रिश्तों की अहमियत से कोई वास्ता नहीं।
फुटपाथ पर गरीबी ठिठुरती सी बैठी है
ज़रदारे-शह्र अब किसी की सोचता नहीं।
जब फ़स्ले-उम्र सूख चुकी तब वो आई है,
मरते समय इलाज़ से कुछ फ़ायदा नहीं।
वे क़िस्से लैला मजनूं के सुन के करेंगे क्या,
आदेश हिज्र का कोई जब मानता नहीं।
मंझधार कश्तियों की मदद करना चाहे पर,
मगरूर साहिलों क कहीं कुछ पता नहीं।
ये दौर कारखानों का है खेती क्यूं करें,
मजबूरी की ये इन्तहा है इब्तिदा नहीं।
मंदिर की शिक्षा बदले की,मस्जिद में वार का
अब धर्म ओ ग़ुनाह में कुछ फ़ासला नहीं।
दिल के चराग़ों को जला, बैठा है दानी, वो
कैसे कहे हवा-ए-सनम में वफ़ा नहीं।
Sunday, 25 September 2011
वफ़ा का नक़ाब
ग़मों का ज़िन्दगी भर जो हिसाब रखता है,
उसे कभी न खुशी का सवाब मिलता है।
कटाना पड़ता है सर जान देनी पड़ती है,
किसी वतन में तभी इन्क़लाब आता है।
चराग़ों से तुम्हें गर मिलता है उजाला तो,
ज़लील चांदनी की क्यूं किताब पढता है।
उसे अजीज़ है गो बेवफ़ाई का बिस्तर ,
मगर पास वफ़ा का वो नक़ाब रखता है।
सिपाही,जान लुटाकर संवारते सरहद,
सियासी चाल से मौसम ख़राब होता है।
अंधेरों की भी ज़रूरत है सबको जीवन में,
हरेक दर्द कहां आफ़ताब हरता है।
शराब की क्या औक़ात, साक़ी की अदा से,
शराबियों को नशा-ए-शराब चढता है।
हवस के बिस्तर में रोज़ सोती है वो, सब्र
का मेरे दिल के बियाबां में ख़्वाब पलता है।
जो हार कर भी निरंतर प्रयास करता रहे,
वो दुनिया में सदा कामयाब होता है।
अगर तू इश्क़ समंदर से करता है दानी,
तो रोज़ साहिलों को क्यूं हिसाब देता है।
उसे कभी न खुशी का सवाब मिलता है।
कटाना पड़ता है सर जान देनी पड़ती है,
किसी वतन में तभी इन्क़लाब आता है।
चराग़ों से तुम्हें गर मिलता है उजाला तो,
ज़लील चांदनी की क्यूं किताब पढता है।
उसे अजीज़ है गो बेवफ़ाई का बिस्तर ,
मगर पास वफ़ा का वो नक़ाब रखता है।
सिपाही,जान लुटाकर संवारते सरहद,
सियासी चाल से मौसम ख़राब होता है।
अंधेरों की भी ज़रूरत है सबको जीवन में,
हरेक दर्द कहां आफ़ताब हरता है।
शराब की क्या औक़ात, साक़ी की अदा से,
शराबियों को नशा-ए-शराब चढता है।
हवस के बिस्तर में रोज़ सोती है वो, सब्र
का मेरे दिल के बियाबां में ख़्वाब पलता है।
जो हार कर भी निरंतर प्रयास करता रहे,
वो दुनिया में सदा कामयाब होता है।
अगर तू इश्क़ समंदर से करता है दानी,
तो रोज़ साहिलों को क्यूं हिसाब देता है।
Saturday, 17 September 2011
धूप का टुकड़ा।
इक धूप का टुकड़ा भी मेरे पास नहीं है,
पर अहले जहां को कोई संत्रास नहीं है।
मंझधार से लड़ने का मज़ा कुछ और है यारो,
मुरदार किनारों को ये अहसास नहीं है।
कल के लिये हम पैसा जमा कर रहे हैं ख़ूब,
कितनी बची है ज़िन्दगी ये आभास नहीं है।
मासूम चराग़ों की ज़मानत ले चुका हूं,
तूफ़ां की वक़ालत मुझे अब रास नहीं है।
मैं हुस्न के वादों की परीक्षा ले रहा हूं,
वो होगी कभी पास ये विश्वास नहीं है।
अब सब्र के दरिया में चलाऊंगा मैं कश्ती,
पहले कभी भी इसका गो अभ्यास नहीं है।
ग़ुरबत का बुढापा भी जवानी से कहां कम,
मेहनत की इबादत का कोई फ़ांस नहीं है।
आज़ादी का हम जश्न मनाने खड़े हैं आज,
बेकार ,सियासी कोई अवकाश नहीं है।
अब भूख से मरना मेरी मजबूरी है दानी,
हक़ में मेरे रमज़ान का उपवास नहीं है।
पर अहले जहां को कोई संत्रास नहीं है।
मंझधार से लड़ने का मज़ा कुछ और है यारो,
मुरदार किनारों को ये अहसास नहीं है।
कल के लिये हम पैसा जमा कर रहे हैं ख़ूब,
कितनी बची है ज़िन्दगी ये आभास नहीं है।
मासूम चराग़ों की ज़मानत ले चुका हूं,
तूफ़ां की वक़ालत मुझे अब रास नहीं है।
मैं हुस्न के वादों की परीक्षा ले रहा हूं,
वो होगी कभी पास ये विश्वास नहीं है।
अब सब्र के दरिया में चलाऊंगा मैं कश्ती,
पहले कभी भी इसका गो अभ्यास नहीं है।
ग़ुरबत का बुढापा भी जवानी से कहां कम,
मेहनत की इबादत का कोई फ़ांस नहीं है।
आज़ादी का हम जश्न मनाने खड़े हैं आज,
बेकार ,सियासी कोई अवकाश नहीं है।
अब भूख से मरना मेरी मजबूरी है दानी,
हक़ में मेरे रमज़ान का उपवास नहीं है।
Saturday, 3 September 2011
हम दोनों गर साथ ।
हम दोनों गर साथ ज़माने को क्या,
दिन हो या रात, ज़माने को क्या।
आज चराग़ों और हवाओं की गर,
निकली है बारात, ज़माने को क्या।
बरसों हुस्न की मज़दूरी कर मैंने,
पाई है ख़ैरात ,ज़माने को क्या।
साहिल से डरने वाले गर लहरों,
को देते हैं मात, ज़माने को क्या।
कोई हुस्न कोई जाम की बाहों में,
जिसकी जो औक़ात ज़माने को क्या।
मैं ग़रीबी में भी ख़ुश रहता हूं,ये
है ख़ुदाई सौग़ात, ज़माने को क्या।
ग़ैरों से बांह छुड़ाये ठीक ,अगर
अपने करें आघात, ज़माने को क्या।
शाम ढले घर आ जाया करो बेटे,
ये समय है आपात ज़माने को क्या।
चांद वफ़ा का शौक़ रखे दानी पर,
चांदनी है बदज़ात ज़माने को क्या।
दिन हो या रात, ज़माने को क्या।
आज चराग़ों और हवाओं की गर,
निकली है बारात, ज़माने को क्या।
बरसों हुस्न की मज़दूरी कर मैंने,
पाई है ख़ैरात ,ज़माने को क्या।
साहिल से डरने वाले गर लहरों,
को देते हैं मात, ज़माने को क्या।
कोई हुस्न कोई जाम की बाहों में,
जिसकी जो औक़ात ज़माने को क्या।
मैं ग़रीबी में भी ख़ुश रहता हूं,ये
है ख़ुदाई सौग़ात, ज़माने को क्या।
ग़ैरों से बांह छुड़ाये ठीक ,अगर
अपने करें आघात, ज़माने को क्या।
शाम ढले घर आ जाया करो बेटे,
ये समय है आपात ज़माने को क्या।
चांद वफ़ा का शौक़ रखे दानी पर,
चांदनी है बदज़ात ज़माने को क्या।
Friday, 19 August 2011
जंगा का मिजान
हर जंग का मिज़ान है हिम्मत ओ हौसला,
पर इश्क़ के मकान में ताक़त का काम क्या।
आवार घूमता है विरह की गली में चांद,
फिर बादलों का चांदनी पर जादू चल गया।
मंज़ूर है चरागे-जिगर को शरारे ग़म,
महफ़िल-ए-हुस्न जलवा दिखाये तो मरहबा।
पतझड़ भरे खेतों में कल आयेगी बहार,
हर ज़िन्दगी के साथ है सुख दुख का सिलसिला।
हमको मिला ग़रीबी का दानव तमाम उम्र,
गोया अमीरों की ही इबादत सुने ख़ुदा।
मां गांव में अकेले ही मर ख़फ़ गई मगर,
मैं बज़्मे-शह्र से कभी भी ना निकल सका।
जलते रहा वफ़ा के शरारों में मेरा दिल,
मेरे जनाज़े में भी न ,पर आई बेवफ़ा।
वो नीमकश निगाहें वो दिलकश अदायें हाय,
उस बेरहम को कैसे दूं मर के भी बद्दुआ।
मझधारे-शौक़ को हरा कर दानी आया है,
पर सब्र के किनारों को मुश्किल है जीतना।
पर इश्क़ के मकान में ताक़त का काम क्या।
आवार घूमता है विरह की गली में चांद,
फिर बादलों का चांदनी पर जादू चल गया।
मंज़ूर है चरागे-जिगर को शरारे ग़म,
महफ़िल-ए-हुस्न जलवा दिखाये तो मरहबा।
पतझड़ भरे खेतों में कल आयेगी बहार,
हर ज़िन्दगी के साथ है सुख दुख का सिलसिला।
हमको मिला ग़रीबी का दानव तमाम उम्र,
गोया अमीरों की ही इबादत सुने ख़ुदा।
मां गांव में अकेले ही मर ख़फ़ गई मगर,
मैं बज़्मे-शह्र से कभी भी ना निकल सका।
जलते रहा वफ़ा के शरारों में मेरा दिल,
मेरे जनाज़े में भी न ,पर आई बेवफ़ा।
वो नीमकश निगाहें वो दिलकश अदायें हाय,
उस बेरहम को कैसे दूं मर के भी बद्दुआ।
मझधारे-शौक़ को हरा कर दानी आया है,
पर सब्र के किनारों को मुश्किल है जीतना।
Thursday, 11 August 2011
आशिक़ का जिगर
सावन की घटाओं से तुम काली चुनर लेना,
औ ,बिजलियों से पागल आशिक का जिगर लेना।
जब दिल के समन्दर को हो इच्छा मिलन की तो,
तुम ग़मज़दा हर साहिल को तोड़, सफ़र लेना।
गर मन के पहाड़ों पर सैलाबे-हवस छाये,
तो सब्रो-वफ़ा से दिल की धरती को भर लेना।
जब चांदनी बन छाओ तुम शौक़ की गलियों में,
फ़ुटपाथी क़मर से धोखेबाज़ी का ज़र लेना।
जब दिल में मुसाफ़त का तूफ़ान उठे हमदम, ( मुसाफ़त--यात्रा)
तुम बादलों की दीवानेपन की ख़बर लेना।
गर बाग़े-वफ़ा से पतझड़ की सदा आये तो,
सरहद की फ़िज़ाओं से कुर्बानी का ज़र लेना।
धरती की हवा हो जाये सुर्ख, विरह से गर,
तो सूर्य से तुम गर्मी सहने का हुनर लेना।
गर प्यार में घायल कुछ चिड़ियों की करो सेवा,
तो उनसे तलाशे-साजन, ताक़ते-पर लेना।
दुख दर्द चरागे-दिल का जानते हो दानी,
नादान हवा-ए-मज़हब से, न शरर लेना।
औ ,बिजलियों से पागल आशिक का जिगर लेना।
जब दिल के समन्दर को हो इच्छा मिलन की तो,
तुम ग़मज़दा हर साहिल को तोड़, सफ़र लेना।
गर मन के पहाड़ों पर सैलाबे-हवस छाये,
तो सब्रो-वफ़ा से दिल की धरती को भर लेना।
जब चांदनी बन छाओ तुम शौक़ की गलियों में,
फ़ुटपाथी क़मर से धोखेबाज़ी का ज़र लेना।
जब दिल में मुसाफ़त का तूफ़ान उठे हमदम, ( मुसाफ़त--यात्रा)
तुम बादलों की दीवानेपन की ख़बर लेना।
गर बाग़े-वफ़ा से पतझड़ की सदा आये तो,
सरहद की फ़िज़ाओं से कुर्बानी का ज़र लेना।
धरती की हवा हो जाये सुर्ख, विरह से गर,
तो सूर्य से तुम गर्मी सहने का हुनर लेना।
गर प्यार में घायल कुछ चिड़ियों की करो सेवा,
तो उनसे तलाशे-साजन, ताक़ते-पर लेना।
दुख दर्द चरागे-दिल का जानते हो दानी,
नादान हवा-ए-मज़हब से, न शरर लेना।
Saturday, 6 August 2011
विरह की आग
मुझसे सावन की घटा ,ये कह रही है,
क्यूं विरह की आग तेरे दर खड़ी है।
ऐसे मौसम में ख़फ़ा क्यूं तुझसे साजन ,
तेरे ही श्रृंगार में शायद कमी है।
कुछ अदा-ए-हुस्न का परचम तो फ़हरा,
तुझको यौवन की इनायत तो मिली है।
भीख मांगेगा रहम की,तुझसे वो, तू
हुस्न की जंज़ीर ढीली क्यूं रखी है।
बांध कर क्यूं रखते हो ज़ुल्फ़ों को अपनी,
इसके साये में हया भी बोलती है।
नथनी ,बिछिया , पैरों में माहुर कहां हैं,
सब्र की बुनियाद इनसे ही ढही है।
नीमकश नज़रों से बर्छी तो चलाओ,
सैकड़ों कुरबानी इसने ही तो ली है।
चूड़ियों को हौले से खनका तो दे , फिर
देखें कितनी पाक साजन की ख़ुदी है।
फिर सुना, झन्कार अपने पायलों की,
साधुओं की भी इन्हीं से दुश्मनी है।
सुर्ख साड़ी की ज़मानत क्यूं न लेती,
ये मुहब्बत की अदालत की सखी है।
तेरा साजन दौड़ कर आयेगा दानी,
वो कोई ईश्वर नहीं इक आदमी है।
क्यूं विरह की आग तेरे दर खड़ी है।
ऐसे मौसम में ख़फ़ा क्यूं तुझसे साजन ,
तेरे ही श्रृंगार में शायद कमी है।
कुछ अदा-ए-हुस्न का परचम तो फ़हरा,
तुझको यौवन की इनायत तो मिली है।
भीख मांगेगा रहम की,तुझसे वो, तू
हुस्न की जंज़ीर ढीली क्यूं रखी है।
बांध कर क्यूं रखते हो ज़ुल्फ़ों को अपनी,
इसके साये में हया भी बोलती है।
नथनी ,बिछिया , पैरों में माहुर कहां हैं,
सब्र की बुनियाद इनसे ही ढही है।
नीमकश नज़रों से बर्छी तो चलाओ,
सैकड़ों कुरबानी इसने ही तो ली है।
चूड़ियों को हौले से खनका तो दे , फिर
देखें कितनी पाक साजन की ख़ुदी है।
फिर सुना, झन्कार अपने पायलों की,
साधुओं की भी इन्हीं से दुश्मनी है।
सुर्ख साड़ी की ज़मानत क्यूं न लेती,
ये मुहब्बत की अदालत की सखी है।
तेरा साजन दौड़ कर आयेगा दानी,
वो कोई ईश्वर नहीं इक आदमी है।
Saturday, 30 July 2011
मौत की उम्मीद
मरने की उम्मीद में बस जी रहा हूं,
अपनी सांसों का कफ़न खुद सी रहा हूं।
तेरी आंखों के पियाले देखे जब से,
मैं शराबी तो नहीं पर पी रहा हूं।
जनता के आइनों से मैं ख़ौफ़ खाता ,
मैं सियासी चेहरों का पानी रहा हूं।
तुम तवायफ़ की गली की आंधियां, मैं,
बे-मुरव्वत शौक की बस्ती रहा हूं।
क्या पता इंसानियत का दर्द मुझको,
सोच से ता-उम्र सरकारी रहा हूं।
काम हो तो मैं गधे को बाप कहता,
दिल से इक चालाक व्यापारी रहा हूं।
इश्क़ में तेरे ,हुआ बरबाद ये दिल,
हुस्न के मंचों की कठपुतली रहा हूं।
जग, पुजारी है किनारों की हवस का,
सब्र के दरिया की मैं कश्ती रहा हूं।
मत करो दानी हवाओं की ग़ुलामी,
मैं चरागों के लिये ख़ब्ती रहा हूं।
अपनी सांसों का कफ़न खुद सी रहा हूं।
तेरी आंखों के पियाले देखे जब से,
मैं शराबी तो नहीं पर पी रहा हूं।
जनता के आइनों से मैं ख़ौफ़ खाता ,
मैं सियासी चेहरों का पानी रहा हूं।
तुम तवायफ़ की गली की आंधियां, मैं,
बे-मुरव्वत शौक की बस्ती रहा हूं।
क्या पता इंसानियत का दर्द मुझको,
सोच से ता-उम्र सरकारी रहा हूं।
काम हो तो मैं गधे को बाप कहता,
दिल से इक चालाक व्यापारी रहा हूं।
इश्क़ में तेरे ,हुआ बरबाद ये दिल,
हुस्न के मंचों की कठपुतली रहा हूं।
जग, पुजारी है किनारों की हवस का,
सब्र के दरिया की मैं कश्ती रहा हूं।
मत करो दानी हवाओं की ग़ुलामी,
मैं चरागों के लिये ख़ब्ती रहा हूं।
Saturday, 23 July 2011
रात की तंग गलियां
रात की तंग गलियों में सपने मेरे गुम रहे,
उनकी यादों के बेदर्द तूफ़ां भी मद्ध्म रहे।
नींद आती नहीं रात भर जागता रहता हूं,
मेरी तन्हाइयों के शराफ़त भी गुमसुम रहे।
ज़ख्मों का बोझ लेकर खड़ा हूं दरे-हुस्न पर,
दर्द ,गम ,आंसू ,रुसवाई ही मेरे मरहम रहे।
वस्ल का चांद परदेश में बैठके ले रहा,
इश्क़ की फ़ाइलों में विरह के तबस्सुम रहे।
प्यार की आग की लपटों से कौन बच पाया है,
दिल के मैदानों से दूर बारिश के मौसम रहे।
चांदनी मुझसे नाराज़ थी जब तलक दोस्तों,
तब तलक मेरे घर जुगनुओं के तरन्नुम रहे।
ईदी का फ़र्ज़ हुस्न वाले निभाते नहीं,
इसलिये आश्क़ी की गिरह में मुहर्रम रहे।
कर्ज़ की फ़स्लों से फ़ायदा ओ सुकूं कब मिला,
प्यार के खेतों पर बैंकों के खौफ़-मातम रहे।
गोया हर दौर में सैकड़ो लैला मजनू हुवे,
दुनिया वाले भी हर दौर में दानी ज़ालिम रहे।
उनकी यादों के बेदर्द तूफ़ां भी मद्ध्म रहे।
नींद आती नहीं रात भर जागता रहता हूं,
मेरी तन्हाइयों के शराफ़त भी गुमसुम रहे।
ज़ख्मों का बोझ लेकर खड़ा हूं दरे-हुस्न पर,
दर्द ,गम ,आंसू ,रुसवाई ही मेरे मरहम रहे।
वस्ल का चांद परदेश में बैठके ले रहा,
इश्क़ की फ़ाइलों में विरह के तबस्सुम रहे।
प्यार की आग की लपटों से कौन बच पाया है,
दिल के मैदानों से दूर बारिश के मौसम रहे।
चांदनी मुझसे नाराज़ थी जब तलक दोस्तों,
तब तलक मेरे घर जुगनुओं के तरन्नुम रहे।
ईदी का फ़र्ज़ हुस्न वाले निभाते नहीं,
इसलिये आश्क़ी की गिरह में मुहर्रम रहे।
कर्ज़ की फ़स्लों से फ़ायदा ओ सुकूं कब मिला,
प्यार के खेतों पर बैंकों के खौफ़-मातम रहे।
गोया हर दौर में सैकड़ो लैला मजनू हुवे,
दुनिया वाले भी हर दौर में दानी ज़ालिम रहे।
Friday, 15 July 2011
चांदनी का दरवाज़ा।
चांदनी का बंद क्यूं दरवाज़ा है,
चांद आखिर किस वतन का राजा है।
अपनी ज़ुल्फ़ों को न लहराया करो,
बादलों का कारवां धबराता है।
नेकी की बाहों में रातें कटती हैं ,
सुबह फिर दर्दे बदी छा जाता है।
मोल पानी का न जाने शहरे हुस्न,
मेरे दिल का गांव अब भी प्यासा है।
घर के अंदर रिश्तों का बाज़ार है,
पैसा ही मां बाप जीजा साला है।
फ़र्ज़ की पगडंडियां टेढी हुईं,
धोखे का दालान सीधा साधा है।
क्यूं प्रतीक्षा की नदी में डूबूं मैं,
जब किनारों का अभी का वादा है।
मैं पुजारी ,तू ख़ुदा-ए- हुस्न है,
ऊंचा किसका इस जहां में दर्ज़ा है।
पी रहां हूं सब्र का दानी शराब,
अब हवस का दरिया बिल्कुल तन्हा है।
चांद आखिर किस वतन का राजा है।
अपनी ज़ुल्फ़ों को न लहराया करो,
बादलों का कारवां धबराता है।
नेकी की बाहों में रातें कटती हैं ,
सुबह फिर दर्दे बदी छा जाता है।
मोल पानी का न जाने शहरे हुस्न,
मेरे दिल का गांव अब भी प्यासा है।
घर के अंदर रिश्तों का बाज़ार है,
पैसा ही मां बाप जीजा साला है।
फ़र्ज़ की पगडंडियां टेढी हुईं,
धोखे का दालान सीधा साधा है।
क्यूं प्रतीक्षा की नदी में डूबूं मैं,
जब किनारों का अभी का वादा है।
मैं पुजारी ,तू ख़ुदा-ए- हुस्न है,
ऊंचा किसका इस जहां में दर्ज़ा है।
पी रहां हूं सब्र का दानी शराब,
अब हवस का दरिया बिल्कुल तन्हा है।
Saturday, 9 July 2011
मुहब्बत की कहानी
मुहब्बत तेरी मेरी कहानी के सिवा क्या है,
विरह के धूप में तपती जवानी के सिवा क्या है।
तुम्हारी दीद की उम्मीद में बैठा हूं तेरे दर,
तुम्हारे झूठे वादों की गुलामी के सिवा क्या है।
समन्दर ने किनारों की ज़मानत बेवजह ली,ये,
इबादत-ए-बला आसमानी के सिवा क्या है।
तेरी ज़ुल्फ़ों के गुलशन में गुले-दिल सुर्ख हो जाता,
तेरे मन में सितम की बाग़वानी के सिवा क्या है।
पतंगे-दिल को कोई थामने वाला मिले ना तो,
थकी हारी हवाओं की रवानी के सिवा क्या है।
न इतराओ ज़मीने ज़िन्दगी की इस बुलन्दी पर,
हक़ीक़त में तेरी फ़स्लें ,लगानी के सिवा क्या है।
शिकम का तर्क देकर बैठा है परदेश में हमदम,
विदेशों में हवस की पासबानी के सिवा क्या है।
ग़रीबों के सिसकते आंसुओं का मोल दानी अब,
अमीरों के लिय आंखों के पानी के सिवा क्याहै।
विरह के धूप में तपती जवानी के सिवा क्या है।
तुम्हारी दीद की उम्मीद में बैठा हूं तेरे दर,
तुम्हारे झूठे वादों की गुलामी के सिवा क्या है।
समन्दर ने किनारों की ज़मानत बेवजह ली,ये,
इबादत-ए-बला आसमानी के सिवा क्या है।
तेरी ज़ुल्फ़ों के गुलशन में गुले-दिल सुर्ख हो जाता,
तेरे मन में सितम की बाग़वानी के सिवा क्या है।
पतंगे-दिल को कोई थामने वाला मिले ना तो,
थकी हारी हवाओं की रवानी के सिवा क्या है।
न इतराओ ज़मीने ज़िन्दगी की इस बुलन्दी पर,
हक़ीक़त में तेरी फ़स्लें ,लगानी के सिवा क्या है।
शिकम का तर्क देकर बैठा है परदेश में हमदम,
विदेशों में हवस की पासबानी के सिवा क्या है।
ग़रीबों के सिसकते आंसुओं का मोल दानी अब,
अमीरों के लिय आंखों के पानी के सिवा क्याहै।
Friday, 1 July 2011
सुख का दरवाज़ा
सुख का दरवाज़ा खुला है,
ग़म प्रतिक्षा कर रहा है।
सूर्ख हैं फूलों के चेहरे,
रंग काटों का हरा है।
रात की बाहों मेंअब तक,
दिन का सूरज सो रहा है।
जीतना है झूठ को गर,
सच से रिश्ता क्यूं रखा है।
इश्क़ के जंगल में फिर इक,
दिल का राही फंस चुका है।
बन्दगी उनकी हवस की,
सब्र क्यूं मेरा ख़ुदा है।
जब सियासत बहरों की ,क्यूं
तोपों का माथा चढा है।
बच्चों की ख़ुशियों के खातिर,
बाप को मरना पड़ा है।
इश्क़ के सीने पे अब भी,
हुस्न का जूता रखा है।
मुल्क में पैसा तो है पर,
हिर्स का ताला लगा है। ( हिर्स-- लालच)
ज़ुल्म के दरिया से दानी,
दीन का साहिल बड़ा है।
ग़म प्रतिक्षा कर रहा है।
सूर्ख हैं फूलों के चेहरे,
रंग काटों का हरा है।
रात की बाहों मेंअब तक,
दिन का सूरज सो रहा है।
जीतना है झूठ को गर,
सच से रिश्ता क्यूं रखा है।
इश्क़ के जंगल में फिर इक,
दिल का राही फंस चुका है।
बन्दगी उनकी हवस की,
सब्र क्यूं मेरा ख़ुदा है।
जब सियासत बहरों की ,क्यूं
तोपों का माथा चढा है।
बच्चों की ख़ुशियों के खातिर,
बाप को मरना पड़ा है।
इश्क़ के सीने पे अब भी,
हुस्न का जूता रखा है।
मुल्क में पैसा तो है पर,
हिर्स का ताला लगा है। ( हिर्स-- लालच)
ज़ुल्म के दरिया से दानी,
दीन का साहिल बड़ा है।
Friday, 24 June 2011
नीमकश आंखें।
मेरी तेरी जब से कुछ पहचान है,
मुश्किलों में तब से मेरी जान है।
प्यार का इज़हार करना चाहूं पर,
डर का चाबुक सांसों का दरबान है।
इश्क़ में दरवेशी का कासा धरे,
बेसबब चलने का वरदान है।
जब से तेरै ज़ुल्फ़ों की खम देखी है,
तब से सांसत मे मेरा ईमान है।
मत झुकाओ नीमकश आखों को और,
और कुछ दिन जीने का अरमान है।
ज़िन्दगी भर ईद की ईदी तुझे,
मेरे हक़ में उम्र भर रमजान है।
सब्र की पगडदियां मेरे लिये,
तू हवस के खेल की मैदान है।
मेरे दिल के कमरे अक्सर रोते हैं,
तू वफ़ा की छत से क्यूं अन्जान है।
तेरे बिन जीना सज़ा से कम नहीं,
मरना भी दानी कहां आसान है।
मुश्किलों में तब से मेरी जान है।
प्यार का इज़हार करना चाहूं पर,
डर का चाबुक सांसों का दरबान है।
इश्क़ में दरवेशी का कासा धरे,
बेसबब चलने का वरदान है।
जब से तेरै ज़ुल्फ़ों की खम देखी है,
तब से सांसत मे मेरा ईमान है।
मत झुकाओ नीमकश आखों को और,
और कुछ दिन जीने का अरमान है।
ज़िन्दगी भर ईद की ईदी तुझे,
मेरे हक़ में उम्र भर रमजान है।
सब्र की पगडदियां मेरे लिये,
तू हवस के खेल की मैदान है।
मेरे दिल के कमरे अक्सर रोते हैं,
तू वफ़ा की छत से क्यूं अन्जान है।
तेरे बिन जीना सज़ा से कम नहीं,
मरना भी दानी कहां आसान है।
Friday, 17 June 2011
गम का दरिया
गम का दरिया छलकने को तैयार है,
साहिले हुस्न का ज़ुल्म स्वीकार है।
तेरे वादों का कोई भरोसा नहीं,
झूठ की गलियों में तेरा घरबार है।
चल पड़ी है कश्ती तूफ़ानों के बांहों में,
ज़ुल्मी महबूब, सदियों से उस पार है।
शहरों का रंग चढने लगा गांव में,
हर गली में सियासत का व्यौपार है।
पैसों का हुक्म चलता है अब सांसों पर,
आदमी का कहां कोई किरदार है।
जब से ली है ज़मानत चरागों की,तब
से अदालत हवाओं की मुरदार है।
बस मिटा दो लकीरे वतन को सनम,
इश्क़ को सरहदों से कहां प्यार है।
मन के आंगन में गुल ना खिले वस्ल के,
हुस्न के जूड़े में हिज्र का ख़ार है।
ज़ुल्फ़ों को यूं न हमदम बिखेरा करो,
दानी के गांव का सूर्य बीमार है।
साहिले हुस्न का ज़ुल्म स्वीकार है।
तेरे वादों का कोई भरोसा नहीं,
झूठ की गलियों में तेरा घरबार है।
चल पड़ी है कश्ती तूफ़ानों के बांहों में,
ज़ुल्मी महबूब, सदियों से उस पार है।
शहरों का रंग चढने लगा गांव में,
हर गली में सियासत का व्यौपार है।
पैसों का हुक्म चलता है अब सांसों पर,
आदमी का कहां कोई किरदार है।
जब से ली है ज़मानत चरागों की,तब
से अदालत हवाओं की मुरदार है।
बस मिटा दो लकीरे वतन को सनम,
इश्क़ को सरहदों से कहां प्यार है।
मन के आंगन में गुल ना खिले वस्ल के,
हुस्न के जूड़े में हिज्र का ख़ार है।
ज़ुल्फ़ों को यूं न हमदम बिखेरा करो,
दानी के गांव का सूर्य बीमार है।
Saturday, 11 June 2011
दोस्ती मुश्किलों से
हो गई है दोस्ती मुश्किलों से,
बढ रही हैं दूरियां मन्ज़िलों से।
तेरे दर पे मरने आया हूं हमदम,
वार तो कर आंखों की खिड़कियों से।
बीबी के आगे नहीं चलती कुछ, गो
सरहदों पे लड़ चुका सैकड़ों से।
सोते सोते जाग जाता हूं अक्सर,
लगता है डर ख़्वाबों की वादियों से।
इश्क़ की रातें चरागों सी गुमसुम,
हुस्न का टाकां भिड़ा आंधियों से।
दिल के गुल को मंदिरों से है नफ़रत,
वो लिपटना चाहे तेरी लटों से।
दिल के छत पर तेरे वादों का तूफ़ां,
जो भड़कता हिज्र के बादलों से।
गर सियासत के बियाबां में जाओ,
बच के रहना जंगली भेड़ियों से।
जीतना है गर समन्दर को दानी,
फ़ेंक दो पतवारों को कश्तियों से।
बढ रही हैं दूरियां मन्ज़िलों से।
तेरे दर पे मरने आया हूं हमदम,
वार तो कर आंखों की खिड़कियों से।
बीबी के आगे नहीं चलती कुछ, गो
सरहदों पे लड़ चुका सैकड़ों से।
सोते सोते जाग जाता हूं अक्सर,
लगता है डर ख़्वाबों की वादियों से।
इश्क़ की रातें चरागों सी गुमसुम,
हुस्न का टाकां भिड़ा आंधियों से।
दिल के गुल को मंदिरों से है नफ़रत,
वो लिपटना चाहे तेरी लटों से।
दिल के छत पर तेरे वादों का तूफ़ां,
जो भड़कता हिज्र के बादलों से।
गर सियासत के बियाबां में जाओ,
बच के रहना जंगली भेड़ियों से।
जीतना है गर समन्दर को दानी,
फ़ेंक दो पतवारों को कश्तियों से।
Friday, 3 June 2011
तेरी जुदाई का मातम
तेरी जुदाई का ऐसा मातम रहा,
ता-ज़िन्दगी दूर मुझसे हर गम रहा।
मंज़िल मेरी तेरी ज़ुल्फ़ों के गांव में,
दिल के सफ़र में बहुत पेचो-ख़म रहा।( पेचो_ख़म- उलझन)
इक धूप का टुकड़ा था मेरी जेब में,
पर वो भी नाराज़ मुझसे हरदम रहा।
सांसे गुज़र तो रही हैं बिन तेरे भी,
पर जीने का हौसला हमदम कम रहा।
ईमां की खेती करें तो कैसे करें,
बाज़ारे दुनिया में सच भी बरहम रहा। (बरहम- अप्रसन्न)
दिल की गली को दुआ तेरे अब्र की,
ता उम्र ज़ुल्मो-सितम का मौसम रहा।
नेक़ी की पगड़ी गो ढीली ढीली रही,
मीनार छूता बदी का परचम रहा।( परचम- झंडा)
भौतिकता के अर्श में हम ऐसे फंसे, ( अर्श- आकाश)
सदियां गई आदमी पर ,आदम रहा।
बुलबुल-ए-दिल, हुस्न के बगिया से कहे
सैयाद से रिश्ता दानी कायम रहा
ता-ज़िन्दगी दूर मुझसे हर गम रहा।
मंज़िल मेरी तेरी ज़ुल्फ़ों के गांव में,
दिल के सफ़र में बहुत पेचो-ख़म रहा।( पेचो_ख़म- उलझन)
इक धूप का टुकड़ा था मेरी जेब में,
पर वो भी नाराज़ मुझसे हरदम रहा।
सांसे गुज़र तो रही हैं बिन तेरे भी,
पर जीने का हौसला हमदम कम रहा।
ईमां की खेती करें तो कैसे करें,
बाज़ारे दुनिया में सच भी बरहम रहा। (बरहम- अप्रसन्न)
दिल की गली को दुआ तेरे अब्र की,
ता उम्र ज़ुल्मो-सितम का मौसम रहा।
नेक़ी की पगड़ी गो ढीली ढीली रही,
मीनार छूता बदी का परचम रहा।( परचम- झंडा)
भौतिकता के अर्श में हम ऐसे फंसे, ( अर्श- आकाश)
सदियां गई आदमी पर ,आदम रहा।
बुलबुल-ए-दिल, हुस्न के बगिया से कहे
सैयाद से रिश्ता दानी कायम रहा
Monday, 30 May 2011
मेरी तन्हाई
मुझसे तन्हाई मेरी ये पूछती है,
बेवफ़ाओं से तेरी क्यूं दोस्ती है।
चल पड़ा हूं मुहब्बत के सफ़र में,
पैरों पर छाले रगों में बेख़ुदी है।
पानी के व्यापार में पैसा बहुत है,
अब तराजू की गिरह में हर नदी है।
एक तारा टूटा है आसमां पर,
शौक़ की धरती सुकूं से सो रही है।
बिल्डरों के द्वारा संवरेगा नगर अब,
सुन ये, पेड़ों के मुहल्ले में ग़मी है।
अब अंधेरों का मुसाफ़िर चांद भी है,
चांदनी के ज़ुल्फ़ों की आवारगी है।
अब खिलौनों वास्ते बच्चा न रोता,
टीवी के दम से जवानी चढ गई है।
दिल की कश्ती को किनारों ने डुबाया,
इसलिये मंझधार को से मिलने चली है।
मत लगाना हुस्न पर इल्ज़ाम दानी,
ऐसे केसों में गवाहों की कमी है।
बेवफ़ाओं से तेरी क्यूं दोस्ती है।
चल पड़ा हूं मुहब्बत के सफ़र में,
पैरों पर छाले रगों में बेख़ुदी है।
पानी के व्यापार में पैसा बहुत है,
अब तराजू की गिरह में हर नदी है।
एक तारा टूटा है आसमां पर,
शौक़ की धरती सुकूं से सो रही है।
बिल्डरों के द्वारा संवरेगा नगर अब,
सुन ये, पेड़ों के मुहल्ले में ग़मी है।
अब अंधेरों का मुसाफ़िर चांद भी है,
चांदनी के ज़ुल्फ़ों की आवारगी है।
अब खिलौनों वास्ते बच्चा न रोता,
टीवी के दम से जवानी चढ गई है।
दिल की कश्ती को किनारों ने डुबाया,
इसलिये मंझधार को से मिलने चली है।
मत लगाना हुस्न पर इल्ज़ाम दानी,
ऐसे केसों में गवाहों की कमी है।
Monday, 23 May 2011
रात तेरे वादों पर कुर्बान है।
ये रात तेरे वादों पर कुर्बान है,
अब ख़्वाबों का चौपाल भी सुनसान है।
ग़म दर्द से लबरेज़ मेरे दिल का दर,
सर पर वफ़ा का भारी सा सामान है।
पैरों पे छाले पड़ चुके हैं इश्क़ के,
पर हुस्न का दिल दर्द से अन्जान है।
दोनों मुसाफ़िर हैं सफ़र-ए-इश्क़ के,
पर मंज़िलों से उनकी ही पहचान है।
दिल का समन्दर क्यूं किनारों पर फ़िदा,
ये कश्ती-ए-मज़रूह का अपमान है।
मेरी किताबों में तेरे अल्फ़ाज़ हैं,
मेरी कलम का हौसला ज़िन्दान है ।( ज़िन्दान - क़ैद)
इस गांव के बाशिन्दे पर खाओ तरस,
तू बे-नियाज़े शह्र की सुल्तान है।
मैं क़ब्र में भी राह तेरी देखूंगा'
मरती हुई सांसों का ऐलान है।
ये इश्क़ भी दानी अंधेरों की गली,
मुश्किल निकलना,घुसना गो आसान है।
---
अब ख़्वाबों का चौपाल भी सुनसान है।
ग़म दर्द से लबरेज़ मेरे दिल का दर,
सर पर वफ़ा का भारी सा सामान है।
पैरों पे छाले पड़ चुके हैं इश्क़ के,
पर हुस्न का दिल दर्द से अन्जान है।
दोनों मुसाफ़िर हैं सफ़र-ए-इश्क़ के,
पर मंज़िलों से उनकी ही पहचान है।
दिल का समन्दर क्यूं किनारों पर फ़िदा,
ये कश्ती-ए-मज़रूह का अपमान है।
मेरी किताबों में तेरे अल्फ़ाज़ हैं,
मेरी कलम का हौसला ज़िन्दान है ।( ज़िन्दान - क़ैद)
इस गांव के बाशिन्दे पर खाओ तरस,
तू बे-नियाज़े शह्र की सुल्तान है।
मैं क़ब्र में भी राह तेरी देखूंगा'
मरती हुई सांसों का ऐलान है।
ये इश्क़ भी दानी अंधेरों की गली,
मुश्किल निकलना,घुसना गो आसान है।
---
Sunday, 24 April 2011
ज़िन्दगी यारो नदी है।
तुमको इज़्ज़त की पड़ी है,
मेरी दुनिया लुट रही है।
बेवफ़ाई की गली भी,
हां ख़ुदा द्वारा बनी है।
इश्क़ नेक़ी का मुसाफ़िर,
हुस्न धोखे की गली है।
हम चराग़ों के सिपाही,
आंधियों से दुश्मनी है।
चाह कर भी रुक न सकते,
ज़िन्दगी यारो नदी है।
क्यूं किनारों पर सड़ें जब,
लहरों की दीवानगी है।
तीरगी के इस सफ़र में, (तीरगी - अंधेरों)
जुगनुओं से दोस्ती है।
मेरी दरवेशी पे मत हंस,
अब यही मेरी ख़ुदी है। (ख़ुदी -स्वाभिमान)
चांद के जाते ही दानी,
चांदनी बिकने खड़ी है।
मेरी दुनिया लुट रही है।
बेवफ़ाई की गली भी,
हां ख़ुदा द्वारा बनी है।
इश्क़ नेक़ी का मुसाफ़िर,
हुस्न धोखे की गली है।
हम चराग़ों के सिपाही,
आंधियों से दुश्मनी है।
चाह कर भी रुक न सकते,
ज़िन्दगी यारो नदी है।
क्यूं किनारों पर सड़ें जब,
लहरों की दीवानगी है।
तीरगी के इस सफ़र में, (तीरगी - अंधेरों)
जुगनुओं से दोस्ती है।
मेरी दरवेशी पे मत हंस,
अब यही मेरी ख़ुदी है। (ख़ुदी -स्वाभिमान)
चांद के जाते ही दानी,
चांदनी बिकने खड़ी है।
Saturday, 16 April 2011
राम की नगरी
राम की नगरी में रावण की सभायें,
द्वारिका पर कंस की कसती भुजायें।
उस तरक्की के सफ़र में चल पड़े हम,
लक्ष्मणों का पाप ढोती उर्मिलायें।
रिश्तों की बुनियाद ढहती जा रही है,
विभिषणों की दास्तां कितनी सुनायें।
आंसुओं से भीगे रामायण के पन्ने,
तुलसी भी लिक्खे सियासत की कथायें।
आज भी मीरायें विष पी रही हैं,
आज के क्रिष्णों की ठंडी हैं शिरायें।
मस्त हैं सावित्री ओ यमराज के दिल,
सत्यवां की आंखों में उमड़ी घटायें।
गांधी के बंदर कहां अब बोलते हैं,
हर तरफ़ मनमोहनी ज़ुल्मी सदायें।
नेक़ी ईमां अब सरे बाज़ार बिकते,
पाप के असबाब से बढती वफ़ायें।
मुल्क की इज़्ज़त की किसको पड़ी है,
ग़मज़दा सारे शहीदों की चितायें।
पांडवों की हार में हंसते हैं दानी
कौरवों की जीत में ख़ुशियां मनायें।
द्वारिका पर कंस की कसती भुजायें।
उस तरक्की के सफ़र में चल पड़े हम,
लक्ष्मणों का पाप ढोती उर्मिलायें।
रिश्तों की बुनियाद ढहती जा रही है,
विभिषणों की दास्तां कितनी सुनायें।
आंसुओं से भीगे रामायण के पन्ने,
तुलसी भी लिक्खे सियासत की कथायें।
आज भी मीरायें विष पी रही हैं,
आज के क्रिष्णों की ठंडी हैं शिरायें।
मस्त हैं सावित्री ओ यमराज के दिल,
सत्यवां की आंखों में उमड़ी घटायें।
गांधी के बंदर कहां अब बोलते हैं,
हर तरफ़ मनमोहनी ज़ुल्मी सदायें।
नेक़ी ईमां अब सरे बाज़ार बिकते,
पाप के असबाब से बढती वफ़ायें।
मुल्क की इज़्ज़त की किसको पड़ी है,
ग़मज़दा सारे शहीदों की चितायें।
पांडवों की हार में हंसते हैं दानी
कौरवों की जीत में ख़ुशियां मनायें।
Sunday, 3 April 2011
ग़म के बादल
ख़ुशियों का सूर्य गायब है घर से,
छाये हैं ग़म के बादल उपर से।
आज ख़ुद रात घबराई सी है,
चांदनी भी ख़फ़ा है क़मर से।
दुनिया समझे शराबी मुझे,जब
से मिली आंख़ें तेरी नज़र से।
हार ही जीत की पहली सीढी है,
रुकते हो क्यूं पराजय के डर से।
इस महक को मैं पहचानता हूं,
बेवफ़ा गुज़री होगी इधर से।
रातें कट जाती हैं जैसे तैसे,
डरती हैं मेरी सांसें सहर से।
रोज़ वो किस गली गुल खिलाती,
कुछ पता तो करो रहगुज़र से।
दूर रख दिल पहाड़ों से,बचना
भी कठिन गर गिरोगे शिखर से।
ईद का चांद जब तक दिखे ना
मैं हटूंगा नही दानी दर से।
छाये हैं ग़म के बादल उपर से।
आज ख़ुद रात घबराई सी है,
चांदनी भी ख़फ़ा है क़मर से।
दुनिया समझे शराबी मुझे,जब
से मिली आंख़ें तेरी नज़र से।
हार ही जीत की पहली सीढी है,
रुकते हो क्यूं पराजय के डर से।
इस महक को मैं पहचानता हूं,
बेवफ़ा गुज़री होगी इधर से।
रातें कट जाती हैं जैसे तैसे,
डरती हैं मेरी सांसें सहर से।
रोज़ वो किस गली गुल खिलाती,
कुछ पता तो करो रहगुज़र से।
दूर रख दिल पहाड़ों से,बचना
भी कठिन गर गिरोगे शिखर से।
ईद का चांद जब तक दिखे ना
मैं हटूंगा नही दानी दर से।
Saturday, 19 March 2011
होली का हलवा
रोज़ पव्वा पी लिया तो पीलिया हो जायेगा,
ह्ल्दी घाटी के शहीदों का सगा हो जायेगा।
होली में भी फ़ाग गायेंगे नहीं गर चौक पर
तो गली का कुत्ता भी हमसे ख़फ़ा हो जायेगा।
भांग, शादी की मिठाई में न डालो लड़कियों,
वरना वर का बाप दुल्हा बन खड़ा हो जायेगा।
अब पतान्जलि योग शिक्षा से तनेगा हर शरीर,
पर दिमाग़ी घोड़ा रस्ते में खड़ा हो जायेगा।
घंटा बीबी का बजाते ख़ुद रहोगे दानी गर
बाइयों का लफ़ड़ा घर से कल जुदा हो जायेगा।
लड़कियों से दोस्ती करनी है तो साड़ी पहन,
तेरे पीछे लाभ अपना भी ज़रा हो जायेगा।
हुस्न खुल्लेआम गलियों में दिखाये जलवा तो,
शह्र मेरा रांची या फिर आगरा हो जायेगा।
तुम गुलाबी ,लाल सड़ी मत पहनना होली में,
सांडों का ये शह्र वरना बावरा हो जायेगा।
दिल अभी बच्चा है दानी ,पानी दोगे प्यार से,
तो मुनासिब काम खातिर ये बड़ा हो जयेगा।
ह्ल्दी घाटी के शहीदों का सगा हो जायेगा।
होली में भी फ़ाग गायेंगे नहीं गर चौक पर
तो गली का कुत्ता भी हमसे ख़फ़ा हो जायेगा।
भांग, शादी की मिठाई में न डालो लड़कियों,
वरना वर का बाप दुल्हा बन खड़ा हो जायेगा।
अब पतान्जलि योग शिक्षा से तनेगा हर शरीर,
पर दिमाग़ी घोड़ा रस्ते में खड़ा हो जायेगा।
घंटा बीबी का बजाते ख़ुद रहोगे दानी गर
बाइयों का लफ़ड़ा घर से कल जुदा हो जायेगा।
लड़कियों से दोस्ती करनी है तो साड़ी पहन,
तेरे पीछे लाभ अपना भी ज़रा हो जायेगा।
हुस्न खुल्लेआम गलियों में दिखाये जलवा तो,
शह्र मेरा रांची या फिर आगरा हो जायेगा।
तुम गुलाबी ,लाल सड़ी मत पहनना होली में,
सांडों का ये शह्र वरना बावरा हो जायेगा।
दिल अभी बच्चा है दानी ,पानी दोगे प्यार से,
तो मुनासिब काम खातिर ये बड़ा हो जयेगा।
Friday, 4 March 2011
दर्द की तहरीर
ग़म की कलम से दर्द की तहरीर लिखता हूं,
मैं जेबे-दिल में मौत की तस्वीर रखता हूं।
ख़त, जुगनुओं के रोज़ मेरे पास आते हैं,
मैं इश्क़ को अंधेरों में तन्वीर देता हूं। ( तन्वीर - रौशनी)
कासे में इस फ़क़ीर के थोड़ा ही दाना दो, ( कासा - कटोरा)
मैं भूख की फ़िज़ाओं की तकलीफ़ सहता हूं।
मक़्तूल का शिकार, दरे-हुस्न में हुआ, ( मक़्तूल - जिसका क़त्ल हुआ)
अब क़ातिलों को दुआ के पीर देता हूं।
तैयार हूं मैं जलने को, महफ़िल-ए-शमअ में,
कद, पुरखों का बढाने बग़लगीर रहता हूं। (बग़लगीर- बाजू )
इस दिल के आईने को नशा तेरी ज़ुल्फ़ों का,
मैं बादलों से सब्र की जाग़ीर लेता हूं।
फुटपाथ के भरोसे मुकद्दर है चांद का,
मैं चांदनी के ज़ुल्मों की तस्दीक़ करता हूं। ( तस्दीक-पुष्टि)
गो इश्क़ की नदी में उतर तो गया हूं पर,
मंझधारे-हुस्न को कहां मैं जीत सकता हूं।
दिल का सिपाही, ज़ुल्म सियासत का क्यूं सहे,
मैं सरहदों पे दोस्ती के गीत सुनता हूं।
तुम ही मेरा जनाज़ा निकालोगी दानी जल्द,
तेरी वफ़ा से इतनी तो उम्मीद करता हूं।
मैं जेबे-दिल में मौत की तस्वीर रखता हूं।
ख़त, जुगनुओं के रोज़ मेरे पास आते हैं,
मैं इश्क़ को अंधेरों में तन्वीर देता हूं। ( तन्वीर - रौशनी)
कासे में इस फ़क़ीर के थोड़ा ही दाना दो, ( कासा - कटोरा)
मैं भूख की फ़िज़ाओं की तकलीफ़ सहता हूं।
मक़्तूल का शिकार, दरे-हुस्न में हुआ, ( मक़्तूल - जिसका क़त्ल हुआ)
अब क़ातिलों को दुआ के पीर देता हूं।
तैयार हूं मैं जलने को, महफ़िल-ए-शमअ में,
कद, पुरखों का बढाने बग़लगीर रहता हूं। (बग़लगीर- बाजू )
इस दिल के आईने को नशा तेरी ज़ुल्फ़ों का,
मैं बादलों से सब्र की जाग़ीर लेता हूं।
फुटपाथ के भरोसे मुकद्दर है चांद का,
मैं चांदनी के ज़ुल्मों की तस्दीक़ करता हूं। ( तस्दीक-पुष्टि)
गो इश्क़ की नदी में उतर तो गया हूं पर,
मंझधारे-हुस्न को कहां मैं जीत सकता हूं।
दिल का सिपाही, ज़ुल्म सियासत का क्यूं सहे,
मैं सरहदों पे दोस्ती के गीत सुनता हूं।
तुम ही मेरा जनाज़ा निकालोगी दानी जल्द,
तेरी वफ़ा से इतनी तो उम्मीद करता हूं।
Thursday, 24 February 2011
नये साल में
नये साल में नया गुल खिले नई हो महक नया रंग हो,
फ़िज़ा-ए-वतन में ख़ुलूस की सदा हो अदब की तरंग हो।
कहां तक अकेले चलोगे इश्क़ के सर्द, दश्ते-बियाबां में,
मेरा साया, गर न अजीज़ हो तो मेरी दुआयें तो संग हो।
ये लड़ाई सरहदों की,तबाह करेगी हमको भी तुमको भी,
तुम्हें शौक़े- जंग हो तो ग़ुनाहों के सरपरस्तों से जंग हो।
मैं चरागे आशिक़ी को बुलंद रखूंगा मरते तलक सनम,
भले आंधियां तेरे ज़ुल्मी हुस्न की,बे-शहूर मतंग हो।
ये जवानी की हवा चार दिन ही रहेगी, आसमां पे न उड़
सुकूं से बुढापा बिताने , हाथों पे सब्र की ही पतंग हो।
वफ़ा के मकान की कुर्सियां पे लगी हों कीलें भरोसों की,
दिलों के मुहल्ले में ग़ैरों के लिये भी मदद की पलंग हो।
कहां राज पाठ किसी के साथ लहद में जाता है दोस्तों,
दो दिनों की ज़िन्दगी में हवस के मज़ार जल्द ही भंग हो।
मुझे अपने कारवां के सफ़र से जुदा न करना ऐ महजबीं,
तेरे पैरों की जहां भी हो थाप , वहां मेरा ही म्रिदंग हो।
तेरे आसमां पे मेरा ही हुक्म चलेगा दानी , ये याद रख,
मेरी नेक़ी जीतेगी ही तेरी बदी चाहे कितनी दबंग हो।
फ़िज़ा-ए-वतन में ख़ुलूस की सदा हो अदब की तरंग हो।
कहां तक अकेले चलोगे इश्क़ के सर्द, दश्ते-बियाबां में,
मेरा साया, गर न अजीज़ हो तो मेरी दुआयें तो संग हो।
ये लड़ाई सरहदों की,तबाह करेगी हमको भी तुमको भी,
तुम्हें शौक़े- जंग हो तो ग़ुनाहों के सरपरस्तों से जंग हो।
मैं चरागे आशिक़ी को बुलंद रखूंगा मरते तलक सनम,
भले आंधियां तेरे ज़ुल्मी हुस्न की,बे-शहूर मतंग हो।
ये जवानी की हवा चार दिन ही रहेगी, आसमां पे न उड़
सुकूं से बुढापा बिताने , हाथों पे सब्र की ही पतंग हो।
वफ़ा के मकान की कुर्सियां पे लगी हों कीलें भरोसों की,
दिलों के मुहल्ले में ग़ैरों के लिये भी मदद की पलंग हो।
कहां राज पाठ किसी के साथ लहद में जाता है दोस्तों,
दो दिनों की ज़िन्दगी में हवस के मज़ार जल्द ही भंग हो।
मुझे अपने कारवां के सफ़र से जुदा न करना ऐ महजबीं,
तेरे पैरों की जहां भी हो थाप , वहां मेरा ही म्रिदंग हो।
तेरे आसमां पे मेरा ही हुक्म चलेगा दानी , ये याद रख,
मेरी नेक़ी जीतेगी ही तेरी बदी चाहे कितनी दबंग हो।
Sunday, 6 February 2011
पतंगों की जवानी
तू मेरे सूर्ख गुलशन को हरा कर दे ,
ज़मीं से आसमां का फ़ासला कर दे।
हवाओं के सितम से कौन डरता है ,
मेरे सर पे चरागों की ज़िया कर दे ।
या बचपन की मुहब्बत का सिला दे कुछ,
या इस दिल के फ़लक को कुछ बड़ा कर दे।
तसव्वुर में न आने का तू वादा कर ,
मेरी तनहाई के हक़ में दुआ कर दे।
पतंगे की जवानी पे रहम खा कुछ ,
तपिश को अपने मद्धम ज़रा कर दे ।
हराना है मुझे भी अब सिकन्दर को ,
तू पौरष सी शराफ़त कुछ अता कर दे।
मुझे मंज़ूर है ज़ुल्मो सितम तेरा ,
मुझे जो भी दे बस जलवा दिखा कर दे ।
तेरे बिन कौन जीना चाहता है अब ,
मेरी सांसों की थमने की दवा कर दे ।
शहादत पे सियासत हो वतन मे तो ,
शहीदों के लहद को गुमशुदा कर दे।
यहीं जीना यहीं मरना है दोनों को ,
यहीं तामीर काशी करबला कर दे।
भटकना गलियों में मुझको नहीं आता,
दिले-आशिक़ को दानी बावरा कर दे।
अता- देना ,लहद-क़ब्र, तसव्वुर-कल्पना ,फ़लक-गगन।, ज़िया-रौशनी
ज़मीं से आसमां का फ़ासला कर दे।
हवाओं के सितम से कौन डरता है ,
मेरे सर पे चरागों की ज़िया कर दे ।
या बचपन की मुहब्बत का सिला दे कुछ,
या इस दिल के फ़लक को कुछ बड़ा कर दे।
तसव्वुर में न आने का तू वादा कर ,
मेरी तनहाई के हक़ में दुआ कर दे।
पतंगे की जवानी पे रहम खा कुछ ,
तपिश को अपने मद्धम ज़रा कर दे ।
हराना है मुझे भी अब सिकन्दर को ,
तू पौरष सी शराफ़त कुछ अता कर दे।
मुझे मंज़ूर है ज़ुल्मो सितम तेरा ,
मुझे जो भी दे बस जलवा दिखा कर दे ।
तेरे बिन कौन जीना चाहता है अब ,
मेरी सांसों की थमने की दवा कर दे ।
शहादत पे सियासत हो वतन मे तो ,
शहीदों के लहद को गुमशुदा कर दे।
यहीं जीना यहीं मरना है दोनों को ,
यहीं तामीर काशी करबला कर दे।
भटकना गलियों में मुझको नहीं आता,
दिले-आशिक़ को दानी बावरा कर दे।
अता- देना ,लहद-क़ब्र, तसव्वुर-कल्पना ,फ़लक-गगन।, ज़िया-रौशनी
Tuesday, 25 January 2011
देश से प्यार है
दे्श के कण कण से ओ जन जन से हमको प्यार है,
अब यही तो मुल्क के जनतंत्र का आधार है।
फ़र्ज का चौपाल अब भी लगता मेरे गांव में,
ज़ुल्म का हर सिम्त तेरे शहर में दरबार है।
अपनी ज़ुल्फ़ों की घटाओं को रखो तरतीब से,
सूर्य की बुनियाद वरना ढहने को तैयार है।
जब जवानी की अदालत है हवस के बाड़े में,
तो वक़ालत सब्र की मेरे लिये दुश्वार है।
बेवफ़ाई चांदनी का तौर है हर दौर में,
चांद की तस्वीर में अब भी वफ़ा का हार है।
जानिबे-तूफ़ां मेरी कश्ती चली है बेधड़क,
बेरहम साहिल से मेरी सदियों से टकरार है।
क्यूं मुहब्बत में सियासत करती हो जाने-जिगर
ये रियासत तो ख़ुदाई इल्म का संसार है।
जब से तुमको देखा है मेरे होश की छत ढह गई,
बेबसी के दायरे में नींव की दस्तार है। (दस्तार -टोपी)
दानी मैखाने में मय पीने नहीं आता था सुबू,( सुबू-- शराब खाने का मुखिया)
दीदे-साक़ी बिन नशे की हर ज़मीं मुरदार है।
अब यही तो मुल्क के जनतंत्र का आधार है।
फ़र्ज का चौपाल अब भी लगता मेरे गांव में,
ज़ुल्म का हर सिम्त तेरे शहर में दरबार है।
अपनी ज़ुल्फ़ों की घटाओं को रखो तरतीब से,
सूर्य की बुनियाद वरना ढहने को तैयार है।
जब जवानी की अदालत है हवस के बाड़े में,
तो वक़ालत सब्र की मेरे लिये दुश्वार है।
बेवफ़ाई चांदनी का तौर है हर दौर में,
चांद की तस्वीर में अब भी वफ़ा का हार है।
जानिबे-तूफ़ां मेरी कश्ती चली है बेधड़क,
बेरहम साहिल से मेरी सदियों से टकरार है।
क्यूं मुहब्बत में सियासत करती हो जाने-जिगर
ये रियासत तो ख़ुदाई इल्म का संसार है।
जब से तुमको देखा है मेरे होश की छत ढह गई,
बेबसी के दायरे में नींव की दस्तार है। (दस्तार -टोपी)
दानी मैखाने में मय पीने नहीं आता था सुबू,( सुबू-- शराब खाने का मुखिया)
दीदे-साक़ी बिन नशे की हर ज़मीं मुरदार है।
Saturday, 15 January 2011
ऐतबार
तुझपे मैं ऐतबार कर रहा हूं,
मुश्किलों से करार कर रहा हूं।
प्यार कर या सितम ढा ग़लती ये
बा-अदब बार बार कर रहा हूं।
जानता हूं तू आयेगी नहीं पर,
सदियों से इन्तज़ार कर रहा हूं।
जब से कुर्बानी का दिखा है चांद,
अपनी सांसों पे वार कर रहा हूं।
हुस्न की ख़ुशियों के लिये, मैं इश्क़
गमों का इख़्तियार कर रहा हूं।
तू ख़िज़ां की मुरीद इसलिये अब,
मैं भी क़त्ले-बहार कर रहा हूं।
दिल से लहरों का डर मिटाने ही,
आज मैं दरिया पार कर रहा हूं।
मेरा जलता रहे चराग़े ग़म,
आंधियों से गुहार कर रहा हूं।
गांव के प्यार में न लगता था ज़र,
शहरे-ग़म में उधार कर रहा हूं।
आशिक़ी के बियाबां में दानी,
ख़ुद ही अपना शिकार कर रहा हूं।
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जब से कुर्बानी का दिखा है चांद,
अपनी सांसों पे वार कर रहा हूं।
हुस्न की ख़ुशियों के लिये, मैं इश्क़
गमों का इख़्तियार कर रहा हूं।
तू ख़िज़ां की मुरीद इसलिये अब,
मैं भी क़त्ले-बहार कर रहा हूं।
दिल से लहरों का डर मिटाने ही,
आज मैं दरिया पार कर रहा हूं।
मेरा जलता रहे चराग़े ग़म,
आंधियों से गुहार कर रहा हूं।
गांव के प्यार में न लगता था ज़र,
शहरे-ग़म में उधार कर रहा हूं।
आशिक़ी के बियाबां में दानी,
ख़ुद ही अपना शिकार कर रहा हूं।
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Saturday, 8 January 2011
हवा-ए-हुस्न सरकार की
तमहीद क्या लिखूं मेरे यार की,
वो इक दवा है दर्दे-बीमार की।
तेरी अदायें माशा अल्ला सनम,
तेरी बलायें मैंने स्वीकार की।
दरवेशी मैंने तुमसे ही पाई है,
मेरी जवानी तुमने दुशवार की।
दिल ये चराग़ों सा जले,मैंने जब
देखी, हवा-ए-हुस्न सरकार की।
लहरों से मेरा रिश्ता मजबूत है,
साहिल ने बदगुमानी हर बार की।
ना पाया हुस्न की नदी में सुकूं,
कश्ती की सांसें खुद ही मंझधार की।
मासूम मेरे कल्ब को देख कर,
फिर उसने तेज़, धारे-तलवार की।
ग़ुरबत में रहते थे सुकूं से, खड़ी
ज़र के लिये तुम्ही ने दीवार की।
परदेश में ज़माने से बैठा हूं,
है फ़िक्र दानी अपने दस्तार की।
वो इक दवा है दर्दे-बीमार की।
तेरी अदायें माशा अल्ला सनम,
तेरी बलायें मैंने स्वीकार की।
दरवेशी मैंने तुमसे ही पाई है,
मेरी जवानी तुमने दुशवार की।
दिल ये चराग़ों सा जले,मैंने जब
देखी, हवा-ए-हुस्न सरकार की।
लहरों से मेरा रिश्ता मजबूत है,
साहिल ने बदगुमानी हर बार की।
ना पाया हुस्न की नदी में सुकूं,
कश्ती की सांसें खुद ही मंझधार की।
मासूम मेरे कल्ब को देख कर,
फिर उसने तेज़, धारे-तलवार की।
ग़ुरबत में रहते थे सुकूं से, खड़ी
ज़र के लिये तुम्ही ने दीवार की।
परदेश में ज़माने से बैठा हूं,
है फ़िक्र दानी अपने दस्तार की।
Saturday, 1 January 2011
ज़ुल्फ़ों का ख़म
मेरे दिल की खिड़कियां टूटी है हमदम,
फिर भी तेरे हुस्न का तूफ़ां है बरहम। ( बरहम-- अप्रसन्न)
आंसुओं से मैं वफ़ा के गीत लिखता,
बे-वफ़ाई तेरी आंखों की तबस्सुम।
मैं शराबी तो नहीं लेकिन करूं क्या,
दिल बहकता,देख तेरी ज़ुल्फ़ों का खम।
तुम हवस के छाते में गो गुल खिलाती,
सब्र से भीगा है मेरे दिल का मौसम।
साथ तेरे स्वर्ग की ख़्वाहिश थी मेरी,
अब ख़ुदा से मांगता हूं जहन्नुम।
हिज्र की लहरों से मेरी दोस्ती है,
वस्ल के साहिल का तू ना बरपा मातम।
मैं चराग़ों के मुहल्ले का सिपाही,
आंधियों से मुझको लड़ना है मुजस्सम। ( मुजस्सम--जिस्म सहित , आमने -सामने)
मेरे दिल में हौसलों की सीढियां हैं,
पर सफ़लता, भ्रष्ट लोगों के है शरणम।
मेरी ख़ुशियों का गला यूं घोटा दानी,
ईद के दिन भी मनाता हूं मुहर्रम।
फिर भी तेरे हुस्न का तूफ़ां है बरहम। ( बरहम-- अप्रसन्न)
आंसुओं से मैं वफ़ा के गीत लिखता,
बे-वफ़ाई तेरी आंखों की तबस्सुम।
मैं शराबी तो नहीं लेकिन करूं क्या,
दिल बहकता,देख तेरी ज़ुल्फ़ों का खम।
तुम हवस के छाते में गो गुल खिलाती,
सब्र से भीगा है मेरे दिल का मौसम।
साथ तेरे स्वर्ग की ख़्वाहिश थी मेरी,
अब ख़ुदा से मांगता हूं जहन्नुम।
हिज्र की लहरों से मेरी दोस्ती है,
वस्ल के साहिल का तू ना बरपा मातम।
मैं चराग़ों के मुहल्ले का सिपाही,
आंधियों से मुझको लड़ना है मुजस्सम। ( मुजस्सम--जिस्म सहित , आमने -सामने)
मेरे दिल में हौसलों की सीढियां हैं,
पर सफ़लता, भ्रष्ट लोगों के है शरणम।
मेरी ख़ुशियों का गला यूं घोटा दानी,
ईद के दिन भी मनाता हूं मुहर्रम।
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