इस दिल के दर के पास उन्हीं के निशान है,
पर वस्ल की ज़मीन से वो बद-गुमान है।
मेरी वफ़ा के आसमां को उनसे इश्क़ है,
लेकिन हवस के फ़र्श पर उनकी अजान है।
मैं कसमों का ज़ख़ीरा रखा हूं सहेज कर,
पर उनकी वादा बेचने की सौ दुकान है।
सारा जहां झुका चुका हूं हौसलों के दम,
ज़ेहन में उनके बुजदिली का आसमान है।
जर्जर ये कश्ती सात समन्दर की राह पर,
अब लहरों का सलीब मेरा पासबान है।
कल्पना राम- राज्य की साकार होगी अब,
कुछ रावणों के हाथों वतन की कमान है।
जबसे सियासी ज़ुल्म बढा मुल्के-गांधी में,
हथियारों की दलाली , मेरा वर्तमान है।
मक़्तूल के लहद को उजाड़ा गया है, न्याय
फिर क़ातिलों के हाथों बिका बाग़बान है।
लूटो-ख़सोटो और निकल जाओ चुपके से,
दानी जदीद शिक्छा प्रणाली का ग्यान है।
वस्ल-- मिलन। पासबान- रक्छक। लहद-कब्र। जदीद- न
Saturday, 31 July 2010
Thursday, 15 July 2010
वादों का चमन
झुलस चुका है तेरे वादों का चमन हमदम,भरम के पानी से कब तक करूं जतन हमदम।
समन्दरे-वफ़ा ही मेरे इश्क़ की महफ़िल , तेरा दग़ा के किनारों सा अन्जुमन हमदम।
कुम्हारों की दुआ है मेरे प्यार की धरा को,अजीज़ है तुझे क्यूं ग़ैर का वतन हमदम।
शराबे-चश्म पिलाती हो इतनी तुम अदा से,लरजता फिर रहा है मेरा बांकपन हमदम।
ग़मे-चराग़ां से रौशन है मेरी ग़ुरबत ,ख़ुशी-ए-आंधियों कर ले तू गबन हमदम।
सज़ा झुके हुवे पौरष को ना दे वरना लोग,कहेंगे टूटा सिकन्दर का क्यूं वचन हमदम।
क़मर ने चांदनी को नाज़ से रखा पर वो,पहन ली बादलों के इश्क़ का कफ़न हमदम।
ग़रीबों से ख़फ़ा है वो अमीरों पर कुरबान,ज़माने से है ज़माने का ये चलन हमदम ।
बचाना है मुझे अपने अहम को भी दानी,वफ़ा के बदले दग़ा क्यूं करूं सहन हमदम।
अंजुमन- महफ़िल,ग़मे-चराग़ां- चराग़ो के ग़म से। ग़ुर्बत-ग़रीबी।क़मर-चांद।
समन्दरे-वफ़ा ही मेरे इश्क़ की महफ़िल , तेरा दग़ा के किनारों सा अन्जुमन हमदम।
कुम्हारों की दुआ है मेरे प्यार की धरा को,अजीज़ है तुझे क्यूं ग़ैर का वतन हमदम।
शराबे-चश्म पिलाती हो इतनी तुम अदा से,लरजता फिर रहा है मेरा बांकपन हमदम।
ग़मे-चराग़ां से रौशन है मेरी ग़ुरबत ,ख़ुशी-ए-आंधियों कर ले तू गबन हमदम।
सज़ा झुके हुवे पौरष को ना दे वरना लोग,कहेंगे टूटा सिकन्दर का क्यूं वचन हमदम।
क़मर ने चांदनी को नाज़ से रखा पर वो,पहन ली बादलों के इश्क़ का कफ़न हमदम।
ग़रीबों से ख़फ़ा है वो अमीरों पर कुरबान,ज़माने से है ज़माने का ये चलन हमदम ।
बचाना है मुझे अपने अहम को भी दानी,वफ़ा के बदले दग़ा क्यूं करूं सहन हमदम।
अंजुमन- महफ़िल,ग़मे-चराग़ां- चराग़ो के ग़म से। ग़ुर्बत-ग़रीबी।क़मर-चांद।
Monday, 12 July 2010
उलझन
उलझनों में मुब्तिला है ज़िन्दगी ,मुश्किलों का सिलसिला है ज़िन्दगी।
बीच सागर में ख़ुशी पाता हूं मैं , साहिले ग़म से जुदा है ज़िन्दगी ।
फ़ांसी फिर मक़्तूल को दे दी गई ,क़ातिलों का फ़लसफ़ा है ज़िन्दगी।
किसी को तरसाती है ता-ज़िन्दगी,किसी के खातिर ख़ुदा है ज़िन्दगी।
मैं ग़ुलामी हुस्न की क्यूं ना करूं, चाकरी की इक अदा है ज़िन्दगी ।
इक किनारे पे ख़ुशी दूजे पे ग़म ,दो क़दम का फ़ासला है ज़िन्दगी।
मैं हताशा के भंवर में फंस चुका, मेरी सांसों से ख़फ़ा है ज़िन्दगी।
बे-समय भी फ़ूट जाती है कभी ,पानी का इक बुलबुला है ज़िन्दगी।
वादा करके तुम गई हो जब से दूर, तेरी यादों की क़बा है ज़िन्दगी ।
मैं चराग़ो के सफ़र के साथ हूं , बे-रहम दानी हवा है ज़िन्दगी।
बीच सागर में ख़ुशी पाता हूं मैं , साहिले ग़म से जुदा है ज़िन्दगी ।
फ़ांसी फिर मक़्तूल को दे दी गई ,क़ातिलों का फ़लसफ़ा है ज़िन्दगी।
किसी को तरसाती है ता-ज़िन्दगी,किसी के खातिर ख़ुदा है ज़िन्दगी।
मैं ग़ुलामी हुस्न की क्यूं ना करूं, चाकरी की इक अदा है ज़िन्दगी ।
इक किनारे पे ख़ुशी दूजे पे ग़म ,दो क़दम का फ़ासला है ज़िन्दगी।
मैं हताशा के भंवर में फंस चुका, मेरी सांसों से ख़फ़ा है ज़िन्दगी।
बे-समय भी फ़ूट जाती है कभी ,पानी का इक बुलबुला है ज़िन्दगी।
वादा करके तुम गई हो जब से दूर, तेरी यादों की क़बा है ज़िन्दगी ।
मैं चराग़ो के सफ़र के साथ हूं , बे-रहम दानी हवा है ज़िन्दगी।
Sunday, 11 July 2010
ग़म का दरबार
ग़म का दरबार लगाया न करो,दर्द को यार बढाया न करो।
हुस्न की दासता स्वीकार नहीं,मेरा किरदार गिराया न करो।
ये मुहर्रम का महीना है सनम,अपना दीदार कराया न करो।
शमा तू, मेरा पतंगा सा दिल ,अपने सर नार लगाया न करो।
नींव मजबूत न दिल के मकां की,मकतबे-प्यार पढाया न करो।
सच के दम ज़िंदगी चल ना सके पर,झूठा संसार बसाया न करो।
साहिले-वस्ल में रहता हूं मैं,मुझे हिज्रे-मंझधार सुनाया न करो।
मैंनें सरहद पे बहाया है लहू ,कह के गद्दार बुलाया न करो।
कौन आयेगा दरे-ग़म में इस ,बे-वजह द्वार भिड़ाया न करो।
मुझको तुम चाहो न चाहो लेकिन,औरों से प्यार जताया न करो।
नार-आग। मकतबे- प्यार-प्यार का पाठ। साहिले वस्ल-मिलन का किनारा।
हिज्रे-मंझधार-मंझधार का विछोह।
हुस्न की दासता स्वीकार नहीं,मेरा किरदार गिराया न करो।
ये मुहर्रम का महीना है सनम,अपना दीदार कराया न करो।
शमा तू, मेरा पतंगा सा दिल ,अपने सर नार लगाया न करो।
नींव मजबूत न दिल के मकां की,मकतबे-प्यार पढाया न करो।
सच के दम ज़िंदगी चल ना सके पर,झूठा संसार बसाया न करो।
साहिले-वस्ल में रहता हूं मैं,मुझे हिज्रे-मंझधार सुनाया न करो।
मैंनें सरहद पे बहाया है लहू ,कह के गद्दार बुलाया न करो।
कौन आयेगा दरे-ग़म में इस ,बे-वजह द्वार भिड़ाया न करो।
मुझको तुम चाहो न चाहो लेकिन,औरों से प्यार जताया न करो।
नार-आग। मकतबे- प्यार-प्यार का पाठ। साहिले वस्ल-मिलन का किनारा।
हिज्रे-मंझधार-मंझधार का विछोह।
Saturday, 10 July 2010
इश्क़ की खेती
इश्क़ की खेती में अब नुकसान है,बरसों से खाली मेरा खलिहान है।
अब मदद की बरिशें होती नहीं , बादलों का दरिया भी शैतान है।
भोथरे औज़ार हर दिल में जवां , वफ़ा के हल से जहां अंजान है।
शबनमे -दिल की डकैती हो रही , मेढों का नथ तोड़ता इंसान है।
पैसों के चौपाल में बिकता है न्याय,गांव का सरपंच बेईमान है।
प्यार की गलियां हैं दलदल से भरी,कीचड़ों में हुस्न का सामान है।
मैं किनारों के ख़ुदा से क्यूं डरूं ,जब समन्दर मेरा भगवान है।
मैं जलाता हूं चराग़े-सब्र को ,पर हवस का हर तरफ़ तूफ़ान है।
दानी लाचारी ,ग़रीबी ,भूख़ ही ,क्यूं ख़ुदा का दुनिया को वरदान है।
अब मदद की बरिशें होती नहीं , बादलों का दरिया भी शैतान है।
भोथरे औज़ार हर दिल में जवां , वफ़ा के हल से जहां अंजान है।
शबनमे -दिल की डकैती हो रही , मेढों का नथ तोड़ता इंसान है।
पैसों के चौपाल में बिकता है न्याय,गांव का सरपंच बेईमान है।
प्यार की गलियां हैं दलदल से भरी,कीचड़ों में हुस्न का सामान है।
मैं किनारों के ख़ुदा से क्यूं डरूं ,जब समन्दर मेरा भगवान है।
मैं जलाता हूं चराग़े-सब्र को ,पर हवस का हर तरफ़ तूफ़ान है।
दानी लाचारी ,ग़रीबी ,भूख़ ही ,क्यूं ख़ुदा का दुनिया को वरदान है।
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